भूखों की बस्ती | Bhookhon Ki Basti

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Bhookhon Ki Basti  by शिव नारायण शर्मा - Shiv Narayan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सब के सब उठ खड़े हुए। बहुत तो दौड़ भी पढ़े। भूख कीं ज्वाला में भनन की आशा ने चव जीवन ला दिया । वे जोर जोर से बातें करने लगे एक पर एक कदम बढ़ाने लगे--जलत्दी जत्दी जल्दी । सिर्फ पढ़ी रददी उसी पच्चास वर्ष के मनुष्य की लाश । और भी दो प्राणी पढ़े रहे एक बूढ़ी वह बोरे का-सा एक गंदा वख्र लपेटे हुए है उसीके सामने करोब पेंतोस वर्ष का एक मनुष्य फुट-पाथ पर हाथ पेर फेक भाँखे बन्द किये पड़ा है। बीच बीच में वद्द आँखें खोलता और जोर जोर से साँस ठे रहा है । जो अन्न के लोभ में दौड़ रहे थे उन्हीं में से एक आदमी ने फिर कर कहा-- अरे बुढ़िया तू नहीं चलेगी ? बूढ़ी ने सर भर दिला दिया । काहे ? बूढ़ी ने पढ़े हुए बे-वश को ओर अँगुली का संकेत कर दिया । क्या हुआ है ? थोड़ी देर चुप रद कर उसने फिर पूछा - वद्द तेरा कौन है ? बूढ़ी ने हँस कर कहा-- वह मेरा लड़का है दस महीने कोख में रखा है । चह दौड़ पड़ा--आगे बढ़ती भीड़ को लक्ष्य कर चल पड़ा । पाठिका | आकाश पर इन्द्र धनुष उदित हुआ है उसके सौन्दयंको तुम नहीं देखोगी १ खिड़कियाँ खोल दो । अबरक की नाई--रिमक्तिम बरसती चूदें पड़ रददी हैं । वाह दरीर अलसाया हुआ है न अँगड़ाई लो । खिड़की से पंथ के छोर पर दृष्टि ठिका दो । रेशम की तरह मुलायम केश हवा की भूखों की बस्ती १३




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