क्रौंचवध | Kraunchavadh

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Kraunchavadh by वि.स. खांडेकर - V.S. Khandekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋचचध 17 टोकरी से दादासाहब ने मुट्ठी भर कागज के टुकडे उठा लिए और एक- एक कर खोलकर देखने लगे । किसी भी टुक्डे पर अखड पाच घट्‌ शब्द नही भिने ! अतएव उनसे কৃত भी बोघ वे पा न सके । उहने भौर से देखा, एक टुकडे पर दो ही शब्द लिखे थे--'प्रिय दिलीप 1 लिखावट सुलू की ही थी। दादासाहय को लगा, हो न हो, सुलू के उपयास का नायक दिलीप ही होगा और सुलू जो रात भर जागती रही वह इसी नायक बो नाधिका द्वारा लिखे जाने वाले पत्र की रचना उसके मनपसद नही हो पा रही थी इसीलिए । उन्होने कागज वे' कुछ और टुकड़े देखना शुरू क्या। क्सी पर सुलू के अक्षर दिखाई देते ता किसी और पर कुछ दूसरे की लिखावट दिखाई देती थौ । वह दूसरी लिखावट भी अपनी जानी पहिचानी होने का भाभास दादासाहव को होने लगा। किन्तु ठीक से कुछ याद नही आ रहा था। हर साल सेक्डो विद्यार्थी उनसे विद्याग्रहण क रके जाते थे। उनती शकल- सूरत भी अब याद नही आती थी । बम्बई मे कभी-क्भा र कोई युवक रास्ते मे मिल जाता और नमस्कार बरता हुआ कहता, 'सर, मुझे पहचाना ?ै उस समय बडी पेशोपेश मे कह दिया करता, 'चेहरा तो जाना पहिचाना लगता है, लेकिन अब नाम जरा 'और किसी तरह वात का टाल जाता । तब बह युवक बहता, सर मैं आपका छात्र था। अब नगरपालिका में काम करता है। पाठशाला तथा कानिज में पढी पढाई सारी बाता को भुला चुका हू । कितु आपने हमे जो “उत्तररामचरित' पढाया था वह नभी तक याद है । यह सुनकर मैं फूला न समाता। किन्तु दूसरे ही दिन उस युवक का नाम और चेहरा फिर भूल जाता 1 दादासाहब का विचार-चक्त चल रहा था । साथ ही वे दूसरी लिखावट के बागज वे” उन टुक्डा का गौर से निरीक्षण भी करते जा रहे थे। उनकी अवस्था सागर तट की रेत मे खोया हुआ नया वैमा सोने वाले के समान हा गई थी। उकता कर उन्हाने वे सारे कागज के टुकड़े फिर टोकरी मे डाल




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