मोक्षशास्त्र प्रवचन भाग - 11, 12 | Moksha Shatra Pravachan Bhag - 11, 12
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
414
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रध्याप २, सूत्र १ - ९१
एकवचन है मायने जिस तत्वका श्रद्धान वरनेसे सम्यक्त्व होता है उस ततत्वकी जानकारी
७ रूपोमे है । तत्व एक है तथा इन सातोमे अच्तरमे रहने वाला तत्त्व एक ज्ञायक भाव है ।
यहाँ भाववाची शब्द होनेसे एकवचनमें तत्व शब्द दिया है, ऐसे ही स्वतत्त्वम भी भाव-
वाची होनेसे एकवचनमे ग्राया, क्योकि भाव एक है । जीवका भाव है। फिर इसी पर प्रश्न
हो सकता है कि ५ भावोके प्रभाव तो जुदे-जुदे है । श्ोपप्मिक भावसे कुछ विशुद्धि हुई ।
क्षायिक भावसे श्रधिक विशुद्धि हुई । क्षायोपशमिक भावसे मिलमा विशुद्धि हुई और औदयिक
भावसे मलिनना । पारिणामिक भाव सत्त्वरूपमे ही है तो जब इनका फल न्यारा न्यारा है तो
एकता कहाँ रही ? फिर स्वतत्त्व एकवचन क्यो कहा ? तो उत्तर इसका यह है कि यद्यपि
इन जी्रोके फल न्यारे-न्यारे तो है लेकिन है, ये ्रत्माके भाव । आत्मभाव है, एक परि-
णाम है, इस कारणसे यहां बहुवचनमे नही लिया है श्रौर एेसा बोलते ही हैं--गायें धन है,
जिसके पास अधिक गायें हो तो कहते है ना व्यवहारभे कि इसके पास गायघन है। तो
गाय ही घन है ऐसा व्यवहारमे बोलते है तो वहाँ गाय बहुबचन बोला शभौर धन एकव्चन
बोला गया । भावोको एकतामे इस प्रकार प्रयोग होता। सर्वप्रथम तो यह जीवका
स्वतत्व है । |
विकाररूप श्रौदयिक भावको जीवा स्वतत्व कहनेका श्रथं - यहां एक जिज्ञासा यह्
हो सकती है कि जो श्रौदयिक भाव है वह जीवका स्वतत्त्व कैसे ? जीवके स्वरूपसे क्या
मलिनता होती है ? श्रौदयिक भावमे तो कषाय ग्रहण किया, विकार ग्रहण किया । यह तो
मलिनता है, इस जीवका तत्त्व कैसे हो सकता ? उत्तर--यह तत्व सहज भाव है, ऐसा न
जानना एक जीवका परिचय करा रहा है दूसरे अ्रध्यायमे । तो जीवकी ग्रौदयिक ब स्वाभा.
विक श्रादि सभी तरहकी बातें कही जर्येगौ । तब तो जीवके विषयमे परिचय मित्तेगा कि
जीव कंसा दै ? तो श्रौदधिक भाव यद्यपि मलिन भाव है श्रौरः कर्मके उदयका निमित्त पाकर
हुआ है, मगर परिणति जीवकी ही है, वह पद्गलको परिणति नही है । पुद्गल उदयमे प्राया,
कर्म उदयमे श्राया, उसकी भाँको आत्मामे पडी। अब यह जीव उसे अपना मान लेता है ।
भ्रौर ज्ञानमे विकल्प करने लगा ! तो यह् नो विकल्प उठा है यह् पुद्गलकी परिणति वही
ই । जैसे दर्पणके भ्रागे पिछी रख दिया तो पिछीमे जितने ३-४ रग है, ऐसा ही रगीन चित्रण
दपंणामे श्रा गया । तो दर्पणमे जो प्रतिविम्ब श्राया पिछीका तो वह प्रतिबिम्ब दर्पैणाके स्व.
भावसे तो श्राया नही यह् बात तो ठोकं ह, वह तो निसित्तभरूत पिका सन्निधान पाकर
आया । सो भले दही निमित्त सन्निधानमे हो, पर दर्पणमे जो फोटो है, प्रतिबिम्ब हैव
की परिणति है, पिछोकी परिणाति नही है, हृश्रा पिदधीका निमित्त पाकर ,
जसे सूयंप्रका्षके उजेलेमे हाथ श्राडे कर दिया तो नीचे दायाश्रा गई । तो यह
ह् दर्पण
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