हलवासिया स्मृति-ग्रन्थ | Halvaasiya Smarati Granth
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
92 MB
कुल पष्ठ :
341
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)> हलवासिया स्मृति-प्न्थ
इसी भाँति जिसको ब्रह्म ज्ञात नहीं है, उसी को ज्ञात है, और जिसको ज्ञात है, । वह
उसे अज्ञात है, क्योंकि वह जानने वालों को बिना जाना हुआ है और न जानने वाल को
जाना हुआ है। इस प्रकार कविता भी पूर्ण रूप से जानौ जा सकती हं, इसमे सन्देह ६ । इसी-
लिए कविता की व्याख्या तो हो सक्रती है, उसकी परिभाषा देना एक अनधिकार चेष्टा है ।
साहित्य के अन्य रूपों की अपेक्षा कविता की अभिव्यक्ति संभवत: सर्वप्रथम हुई। यह
साहित्य-कानन की प्रथम कलिका है, जिसकी सुरभि उत्तरोत्तर अधिक आह्लादमयी होती गई ।
उसी सुरभि के आकषण मेँ साहित्य के अन्य रूपों को मुकुलित होने की भूमिका प्राप्त हुई
होगी । कविता के इतिहास में प्रथम कविता मह॒षि बाल्मीकि के कण्ठ से क्रोंच-वध के विषाद से
नेत्र की अश्रु-धारा के साथ निकली कहो जाती है; किन्तु कविता की सृष्टि उस समय आरंभ
हो गई होगी जब उल्छास या करुणा, आकर्षण और आत्म-समपंण की भावना ने हृदय में
ऐसी विह्नलता भर दी होगी, जिसे हृदय अपनी भाव-सीमा में सम्हाल न सका होगा और
काव्य का अमृत भाषा मे छलक पड़ा होगा ।
महाकवि तुलसी ने कविता के आविर्भाव के सम्बन्ध में रामचरितमानस में कुछ
सुन्दर पंक्तियाँ लिखी हैं---
हृदय-सिन्धु, मति -सीप समाना,
स्वाति सारदा कहाँह सुजाना।
जो बरसइ बर-बारि बिचारू,
होइ कवित मुक्तामनि चारू।
हृदय के सिन्धु में मति सीप के समान है, काव्य की प्रतिभा या सरस्वती स्वाति
नक्षत्र के समान है। इस अवसर पर यदि सुन्दर विचारों का जल बरस जाय तो भावना
की सीपी में कविता का मोती निर्मित हो जाय । सीप में मोती का निर्माण एक अवसर-
विशेष की बात है। यदि सौभाग्य से ऐसा अवसर आ जाय, तभी “কনিকা? কী सृष्टि हो सकती
है। श्रेष्ठ कविता भी संयोग से ही बनती है, और वह भी प्रतिभा के आलोक से संभव होता हैं ।
कविता जीवन का निर्वि और अक्ृत्रिम सौन््दर्य-बोध है, उसके द्वारा मानव ऐसे
अनवरत और अविरल आनन्द का अनुभव करता है जो समय की गति से धूमिल नहीं होता ।
इसमें पूर्व-चिन्तन की अपेक्षा नहीं है। जिस प्रकार हास्य और रुदन की प्रक्रिया किसी नियम
पर आधारित नहीं है, हँसी की कंली प्रस्फुटित होने के पूर्व यह नहीं सोचती कि उसे किस
प्रकार से प्रस्फुटित होना है, जिस प्रकार रुदन के मोती किसी निदिवत संख्या में नहीं रते,
उसी प्रकार कविता प्रयास-पूर्वक निर्मित नहीं होती । वह आनन्द की धारा में पुष्प की भाँति
लहरों की गोद में विकसित होती है ।
प्राचीत आचार्यों में भरत, दण्डी, रुद्रट, वामन, आनन्दवर्धन, भोज, मम्मट, वाग्भट,
जयदेव, विनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ ने कन्यके हप को परखने की चेष्टा विविध दष्टि-
कोणों से की है। आचार्य भरत ने रस को, दण्डी ने संक्षिप्त वाक्य को, रुद्रट ने शब्द और
उसमें निहित अथं के युम को, वामच ने कलित पद-रीति को, आनन्दवर्धन ने ध्वनिमयी
अथ-निष्पत्ति को, भोज ने निर्दोष अरुंकारमय अर्थं को, मम्मट ने शब्द ओर अथं की संयो- `
नामान
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