सहजानन्द वस्तु - तथ्य प्रवचन | Sahajanand Vastu - Tathya Pravachan

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Sahajanand Vastu - Tathya Pravachan by श्री गुरुवर्य्य मनोहर जी - Shri Guruvayya Manohar ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सहजानन्द वस्तु-तथ्य प्रवचन २१ उसे ठीक न समझना । यो तो भगी लोग भी कहते हे--श्रच्छा बतलावो--तुम्हारे कितनी हुवेलियाँ है ? तो वह कहता कि हमारे १० हवेलियी है किसी भंगीके २० हवेलिया है श्रौर आ्राप लोगोसे पूछें कि बताग्रों झ्रापके पास कितनी हवेली है ? तो कोई कहेगा एक कोई कहेगा दो । झ्रौर भी देखो वे भगी लोग झ्राप लोगोकी हवेलियां श्रापसमें एक दूसरे को वर्जं पर भी दे देते है । तो बात क्या है कि वह व्यवहार लोकरूढिका है । इस बातका बहुत ध्यान देना श्रौर झ्राचार्योकि प्रति श्रद्धा पूर्ण सही रखना । जो सम्पग्ज्ञानपर चलेगा सो पार होगा । देखो उपचार मिध्या है व्पवहारनय ऋजुसूश्रनय शब्दनय समभिरूढनय एवंभ्रुतनय अ्रादिक जो नय बताये है वे भूठ है वया ? कितना श्रज्ञान है जो सब व्यवहारोको एक लाठीसे हाकता है जरा सी जीभ दहला दिया ना समभीसे कुछ बता दिया श्रौर समझ लिया कि श्रोतावों पर दया कर दो । श्रोताप्रोको समभाना चाहिये जिसका प्रयोग दो जगह होता है उपचारमे भी श्ौर श्रुतज्ञानके झंशमे भी वहाँ बताना चाहिये कि जो उपचाररूप व्यवहार यह मिथ्यो होता है उपचार वाला व्यवहार एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमे कतृ त्व॒श्रादि कहता श्रुतज्ञानका प्रश वाला व्यवहार मिथ्या नहीं होता । जैसे लोग दूघ शब्दका प्रयोग करते है तो बड पीपल ग्रादिकके भी दूघ होते श्राकका दूध होता श्रौर गाय भेस वगैरहका भी दूध होता । श्रब कोई कहे आ्राकके दूध लक्ष्य करके कि दूध पीना श्रनिष्ट है उसके पीनेसे पीने वाला मर जाता है तो उसकी यह बात सुनकर कोई यह कहे कि श्ररे हम तो गाय भेंसका दूध न पीवेंगे बताया हैं कि दूध पीनेसे मनुष्य मर जाता है तो कया उसकी यह बुद्धिमानी कही जायगी ? श्ररे वहु तो उपचार कथन है । उपचार सिध्या होता हैं इससे सब व्यवहार मिथ्या है यह बात नहीं समझना । व्यवहार शब्दकी द्विविधता न बताकर व्यवहारकों मिथ्या कहना यह बढ़े कपटकी बात है श्रौर समस्त द्वादशागकी श्रभक्तिकी बात है । कहां क्या बात है सो समभो एक बात तो यह जानें । १३ निमित्तकी द्विधताके परिचयका प्रकाश--दूसरी बात यह समभें जीवविकार के प्रसगमे कि निमित्त शाब्दका प्रयोग भी दो जगह होता है--एक तो होता है भ्राश्रयभूतत निर्मित्तमे और दूसरा प्रयोग होता है अन्वयव्यतिरेकी निमित्तमे । श्रत्वयव्यतिरेकी निमित्तको प्रन्तरग निमित्त कहते है श्रौर श्राप्रयभूत निमित्तको बहिरग निर्मित्त कहते है । तो देखो जीव के विकारके प्रसगमे ही दो प्रकारके निमित्त होते है श्रौर कामके लिए निमित्तके दो प्रकार नही होते वहाँ तो केवल एक ही निमित्त हे--सीधा श्रन्वयव्यतिरेकी । जैसे श्रजीव अ्रजीव पदाथेका निमित्त नैमित्तिक योगमे परिणमन हो तो वहाँ श्राश्रयभ्रुत निमित्त नही होते । झा- श्रयशुतका भ्रथें है कि उपयोग जिस पदार्थका श्राप्रय करे वह पदार्थ श्राप्रयभुत है उसका




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