भारत - विभाजन की कहानी | Bharat Vibhajan Ki Kahani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सहत्वपुर्ण बहस और सलाह-मदविरे हू अनेक भाषण सुने है परन्तु भारत पर जो उनका विशेष विषय है उनका भापण सुनने का मेरे लिए यह पहला ही अवसर था । साइमन कमीशन के सदस्य के रूप मे उनका दो वर्ष काम करना स्पष्टत उनके जीवन का बहुत हो प्रभावकारी अनुभव था । इतिहास की दृष्टि से साइमन कमीशन के बारे मे यहीं सबसे खास बात थी । जो लोग चचिल तथा एटली के बीच का अन्तर समझने मे दिलचस्पी रखते है उन्हे भारतीय पहलू की प्रघानता को नही भूलना चाहिए । इस अवसर पर एटली ने अपने मशहूर प्रतिद्वन्द्वी पर तक के इतने शक्तिशाली चलाए जिनकी में उनसे अपेक्षा नहीं कर सकता था। उन्होने अपने नोट अलग रख दिए और सीधे हृदय से बोलना आरम्भ किया जिसके फलस्वरूप प्रभावशाली शब्दों का प्रवाह फूट पडा । इससे उनकी गली मे तो अन्तर नही पडा किन्तु उनका भापण असौधारण हो गया । इस व्यक्ति के अन्तस में एक आग छिंपी हुई थी और एक आध्यात्मिक ईमानदारी इसको बल पहुचाती थी। जब कभी कोई महान अवसर आ उपस्थित होता वही ईमानदारी इसे ऊ चे उठने मे सहायक होती । चाचिल को उन्होने नाजुक व्यग्यो से भेद डाला । यह एक एसी भिडन्त थी जिसे कभी-कभी साधारण जनता नही समझ पाती परन्तु जो निर्णायकों की दृष्टि मे विजय सूचक होती है और ससद के अखाड़े मे बाजी मार लेती है। एटली ने इस सिद्धांत का प्रतिवाद किया कि वेवल के व्यक्तिगत वक्तव्य देने की कोई आवश्यकता है । उन्होने कहा यदि गेद फेक्नेवाले को बदलना हो तो स्देव लम्बे-चौडे स्पप्टीकरण की आवश्यकता नही होती । जहा तक इस बात की आलोचना का सवाल था कि भारतीय नेताओ को सरकार मे शामिल क्यो किया गया और कामचलाऊ शासन क्यो चालू रक्खा जाता है उन्होने कहा भारतीय समस्या का सार ही यह है कि वहा के राजनीतिज्ञो को यह समझने दिया जाय कि वे समस्याए क्या है जिनका सामना उन्हे आगे चलकर करना पडेगा। बीते जमाने मे हमने जो सुधार किये उनमे सबसे बडा दोष यही था कि हमने जिम्मेदारी की बजाय गर-जिम्मदारी सिखाई है। सारे भारतीय नेता विरोधी पक्ष मे रहते चले आ रहे थे । अपने लबे अनुभव के आधार पर मे कह सकता हु कि हमेशा विरोध मे बन रहना कोई अच्छी चीज नही है। इसके वाद उन्होने अल्प सख्यको के प्रति हमारो जिम्मेदारी का विपय छडा। इस बारे मे उन्होंने एक बडी पते की बात कही । उन्होने कहा कि चूकि परिगणित जातिया हिन्दू समाज-व्यवस्था का अग है इसलिए ब्रिटिश राज इच्छा रहते हुए भी उनका उत्थान नहीं कर सका 1 एक-दो अपवादो को छोड़कर हमारी नीति मौजूदा आर्थिक और सामाजिक ढाचे को स्वीकार कर लेने की थी । फिर अब जब कि हम अपनी सत्ता समेट रहे है हमसे यह क्यो कहा जाता है कि हम इन सब वुराइयों को साफ करके जायँ नही तो हम जिम्मेदारी से भागने




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