श्रीगौरांग महाप्रभु | Shrigorang Mahaprabhu
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
532
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)द्वितीय परिच्छेद ) सजनेतिक तथा सामाजिक स्थिति ५
उस समय हिन्दू राजा वा ज़्मींदार भो थे। नवद्धोप में बुद्धि-
मत्ते लां (९), कास्तना क समीपं दरिपुर मे मेवद्ध॑न दास एषं
थद घान फ पास कुलीन प्राम मे मालधर षर ज़मींदार थे ই জী
रमीदार कायस्य थे । येही कय } লাইন श्रहयरी कहता है कि
वगाल फ समो उपरी एर काय्य चे | क्यो नदीं १ कायस्थ पुरातन
काल से ही काययकुशल, द्िसाव क्षिताब मे पक्त, शरोर विदधान हिति
झाते हैं। नियत कर पहचाने में भी कलह और उत्पात नहीं
करते ये। आज यदि फोई इन्हें आंज दिल्लावे, इनमें दूपण देखे,
इत को निन््दा करे ते यह प्रमय का फेर कहा जायगा और कुछ
नहीं ।
पर उप समय ये ही राजा -ज़मींदार प्रक्त शासनकर्ता थे ।
कामियों का काम इनसे कर घसून कर फे कुछ अपने पांस रखना
और शेष गाड़ेश्यर के पास भेज देना था। उन्हे राजशासन बहुत
दःना नहीं पढ़ता था। सब फूछ णेद्दी हिन्दू राजा करते थे। हां |
उनके पास भी जो फोर फर्यारी दाता या मामला जाता ते वे
उपकी निष्पत्ति कर देते थे । पर इसकी श्रावश्यकता कम हेती थी,
ऐसा अवसर शकम श्रता था। उस समय गांव घर का मामता
নাগাল गाति ही वाले श्रापम् म तय फर लेते थे । किसी को कच.
हगियों में दौड़ने दौइ़ते जूतों का तज्ना घिपाना, घर का आटा गीला
करना प्रै!र श्आईनों के धौत धप्पड् से चानदी गंजा फराना नहीं
पड़ता था। पज्यवर पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने ठीक कह्दा है कि
कचदरी से काम पहनेवालों का मुंडन दे जाता है। उस সত কা
09 'ুরিনল के साथ खां का प्रवेश अप दोखता रै । पण्डु शमे कोरे आश्चयं की
बवन्ध) यह पुततपान रात्रा प्रदत्त फं उपाधि हणी । हमर ऐसा भनुमान करने का कारण
‡। भरमि न स्पा समादक नित बानमु कद शुप्त कलकत्ता से सलन्ध जेह़ुने. के
पृथ/ं मु दाद हे उदू शष मेँ मात प्रापण नायक एक मालिक एव निकालते थे।
उसके मालिक “झागा” उपाधिषारी' एक ब्राह्मण ये। उनका नाम «हमें सम! नहीं होता
रोह एक बार हमारे धर में प्रग्निप्रराप से उत्त पत्र का “फाइल” भी नते गया ।
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