श्री जैन श्वेताम्बर तपागच्छ संघ, जयपुर का वार्षिक मुख-पत्र | Shree Jain Shvetambar Tapagacch Sangh, Jaipur Ka Varshik Mukh-Patra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : श्री जैन श्वेताम्बर तपागच्छ संघ, जयपुर का वार्षिक मुख-पत्र - Shree Jain Shvetambar Tapagacch Sangh, Jaipur Ka Varshik Mukh-Patra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हरिशचन्द्र मेहता - Harishchandra Mehta

Add Infomation AboutHarishchandra Mehta

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
धर्म कल्प वक्ष का मूल मत्री निलिन-सत्वेषु प्रमोदो गुण णालिपू । माध्यस्थूयमविनितेपु करुणा दुःख देषु ॥ धर्मकल्पद्र्‌ मस्येता मूल मैत््यादिभावना: । यनज्ञाता न चाभ्यस्ता:: सतेपामतिदुर्ल भ: ।। अ्र्थ'--सर्व प्राणियों के विपय में मेत्री गुणवानो कै चिपय में प्रमोद अविनियों के विपय में माध्यस्थ्य और सर्वप्राणियों के विषय में मत्री भाव. होना चाहिये । ये मैत्र्यादि भावनायें धर्म कल्पवृक्ष का मूल है । जिसने अपने जीवन में इस भावनाशओों को जाना नहीं, उनका अभ्यास किया नहीं, उसके लिए धर्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । मैत्री भावना जीवन में धर्म प्राप्ति के पूर्व मेत्री आदि ये चार भावनाएँ विपरीत रूप से जुड़ी हुई होती हैं गौर धर्म प्राप्ति के वाद अपने-अपने स्वस्थान में जुड जाती है । अर्थात्‌ जीवन में धर्म प्राप्ति के पूर्व मात्र स्व सुख की ही चिन्ता, मात्र स्वगुणों का ही प्रमोद मात्र स्वदुःस के प्रति ही करुणा और मात्र स्व पापों दे; प्रति ही उपेक्षा होती हे । जवकि--- जीवन मे धर्म प्राप्ति के बाद सर्व के सुख ग्रौर हित की चिन्ता, सर्व गुणीजनों के गुणों के प्रति प्रमोद सर्व द्‌.वी प्राणियों के प्रति करुणा गौर सं पायी प्राणियों के पापों के प्रति उपेक्षा + ष [লা हर || 3 मुनि श्री रत्नसेन विजयजी भ. सा. (अनुवादक ) (1 गुणराती ले० प0 प्र० अध्यात्म थोगी पन्यास प्रवर श्री भद्रकर विनयी गणिवरय धर्म प्राप्ति के पूर्व :--- दूसरे लोग मेरे प्रति मेत्री रखे, मेरे गुणों को देखकर आनन्द पावे, मेरे दु:खों के प्रति करुणा रखे और मेरे पापों के प्रति उपेक्षा रखें ऐसी भावना प्रत्येक के हृदय मे होती है । धर्म प्राप्ति के बाद :--- जीव सवं जीवों के प्रति मत्री श्रादि भावना को धारण करता है। प्रथम भावना आत॑ और रौद्रध्यान स्वरूप है जबकि द्वितीय भावना धर्मध्यान श्रौर शुक्लध्यान स्वरूप है । जिस प्रकार क्षय (टी०ची०) के रोगी के लिए बसंतमालती, सुवर्ण भस्म लोह भस्म तथा अभ्रक भस्म आदि रसायन पुष्टिदायक बनती है उसी प्रकार ये चार भावनाएं आर्त और रौद्र ध्यान से होने वाले आन्तरिक क्षय रोग का नाश कर धर्म- ध्यान रूपी रसायन द्वारा अपनी भ्रान्तरिक देहु को पुष्ट करती है । खण्डित वनी हई शुभ-ध्यान की धारा को ये भावनाएं फिर से जोड़ देती है । ग्रारतंध्यान अर्थात्‌ १--वर्तमान में जो अनु- कूलताएं प्राप्त हुई है, वे कायम रहे ऐसी इच्छा करना 2--जो अनुकूलताए प्राप्त नहीं हुई है उसकी प्राप्ति वी इच्छा करना 3--वर्तमान में जो प्रतिकूलताएं मिली है उनको दूर करने की चिन्ता करना और 4--भविष्य मे कभी भी प्रतिकृनताएं न थआाबे ऐसा विचार करना । ]




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now