धर्मसंग्रह श्रावकाचार | Dharmsangrah Shravkachar

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Dharmsangrah Shravkachar by बाबू सूरजभानुजी वकील - Babu Surajbhanu jee Vakil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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€ ৩) अवाच्यां भरतक्षेत्र भाति षटखडतां गतम्‌ । तजायंखंठके खड देशोऽस्ति मगधाभिधः ॥१०॥ अथोत्‌्---जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा में छद खण्डो में विभक्त अरतखण्ड 1 उसी भरतयंड के आयेखण्ड सेसगध नाम का देश €। वहन्ति सरितां यन्न निष्पदः कमलाख्याः । सदसा; सरसागाधाः सद्ुरस्येव टत्तयः ॥१५॥ अथात्‌-- उसी मगध दे मे कमकरू ओर दसो से भ्षित तथा निर्मल जर मञ्जुर जक की भरी नदियों उत्तम कुछ की बृत्ति के समान অছলী हे 1 (৭! 0.4 चनानि यच रम्याणि सच्छासैः सफङेनमैः । श्रमणालिसमासी ने! सत्कुछानीव सज्जनें; ॥१ ६॥ अथोत्‌---जद्दां पवित्र छाया, उत्तम २ फल तथा झुनिराजों के समूह सर विराजमान पचैतो सर शोभित मनोर बन ই | जैसे उत्तम पुरुषों से रोमित कुछ दोते दे । धातूनामाकरा यच रजानां च चकासिरे । रोक पुण्येरिवायाता निधयशथक्रवत्तिनः ॥ १७] अर्थात्‌--जिस देश में वण, चांदी आदि घाठु तथा नाना भकार के रत्नो की खानियं दे। यो कदो कि लोकां के बड भारी पुण्य के उदय से ज्याई हुई चक्रव्ति की निधिये ই । सेषु मेथमाणोऽपि सरसाः सारभञ्जरीः । आस्वादयति कीरोऽत सुग्धोऽपर्यन्स्वदन्धनमस्‌ ॥ १८॥ अथोत्‌-जिस देश में खेतकी रखवाशलेयों ले उडाया हुआ भी तोता जपपने दन्‍्धनको न देखकर धानन्‍्य के हरे २ अऊकुरों कों सानन्‍्द ' भक्षण करता है। पाययन्त्यध्वगान्‌ गीत्वा वाङिकाजरूमेकशचः । पुनस्तास्ते न युच्न्ति केतकींश्चमरसा इव ।१९॥




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