बृहदारण्यक परिषद | Brihadaranyaka Panishad

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Brihadaranyaka Panishad by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वह अश्वके पीछे रक्खाजाता है, इसका ॒ उत्पत्तिस्थान पश्चिम सुद्र है । पे मिसा सायके छुषणं और रजते ॥ | दोनों पान्न अश्वके आगे और पीचे জানি ই । यह । अश्व हथ जातिका होकर देवताओंको सबारी देता था, | घाजी जातिका होकर হাল্ঘনীক্কী, আভা সালিজ্া ীক্ষহ | असुरोको और अश्व जातिका होकर भनुष्पोंको सबारी | देता धा । ससुद्ररूप परमात्मा इसका धन्धनस्थाने है । | ओऔर ससुद्ररूप परमात्मा ही इसका उत्पत्ति सथान द । | इसप्रकार इस अश्वी उत्पतति, स्थिति चौर लयस्थान | परभशुद्ध हैं ॥ २॥ | | एति प्रथमाध्यायस्य प्रधमं व्र्य्ं समाम्‌ । - 6 अब अश्वमेधके उपयोगी अग्निकी उत्पत्ति कहते हैं- ॥ 555 | शनयाऽ्शनायया हि खल्युस्तन्मनांऽरुताः्स- | - मी स्थागिति। सोध्वैन्नचरतस्पाचेत आपो- शजायन्तावेते वे में कृपभू[दिति तदेवाकैस्या- । फैले कह वा असम भवति वे एयमेतदर्क: । स्पा्कत्व वेद ॥ १ ॥ . 1 मर्करय ओर पदाधे- ( हह ) यहाँ ( श्रे) पदले ( किन ) | कुछ मी ( नेव ) नहीं ( मासीत्‌ ) या ( अशनायया. | ¶ दत्युना, एव › भोजन करनेकी इच्चोरूप জুন दी! ( रदष्‌ ) यह्‌ ( आवुततम्‌ ) श्राञ्छादिति ( आसीत ) था. ! ( हि) क्योंकि (अशनाया ) मोजनकी इच्छा ( मत्युः ) ॥ । | বৃ है € নত ) লহ € आंत्मन्ची. ) अन्तःकरणवालां † 1 (स्याम्‌) होऊ ( इति ) ऐसा विचार कर ( सन)) পন বি (নট जन्त | | শা সহজ, ক




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