Samyakt Chintamani | सम्यक्त्व-चिन्तामणि

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ सम्यक्त्वचिन्तामणिः ज्ञानावरणादिक और भावकर्म--रागादिक लग रहे है । ये किस कारणसे ल्म रहे हैं, जब इसका विचार आता हैं तब आज्रवतत्त्व उपस्थित होता है । आलवके बाद जोव भौर अजीवको क्या दला होती है, यह बतानेके लिए बन्धतस्व आदा है 1 आल्ञवका विरोधी भावसंवर है, बन्धका विरोधी भावनिर्जरा है तथा जब सथ नोकर्म, द्रव्य कर्म और भावकर्म जीवसे सदाके लिए सर्वथा विमुक्तो जाते हैं तब मोक्षतत्त्व होता है । पुष्य और पाप आख्रवके अन्तर्गत हैं । इस तरह आत्मकल्याणके लिए उपयुक्त सात तत्त्व अथवा नौ पदार्थ प्रयोजनभूत ह । इनका वास्तविक रूपसे निर्णय कर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है । एेसा न हो कि आल्लव भौर बन्धके कारणोको संवर भौर निर्जराका कारण समक्न लिया जाय अथवा जीवकी राग्रादिकपूर्ण अवस्थाको जीवतत्त्व समझ लिया जाय या जीवकी वैभाविक परिणति (रामादिक) को सर्वथा अजीव समझ लिया जाय, क्योंकि ऐसा समझनेसे वस्तुतरंवका सही निर्णय नही हो पाता और सही निर्णयके अभावमें यह भात्मा मोक्षको प्राप्त नहीं हो पाता जिन भा्वोक्ो यह्‌ जीव मोक्षका कारण मानकर करता है वे भाव पृण्यास्रवके कारण होकर इस जीवको देवादिगतियोंमे सागरों पर्यन्तके लिए रोक लेते हैं । सात तत्त्वोंमें जीव और अजीवका जो संयोग है वह ससार है तथा आज्रव और बन्ध उसके कारण हैं। जीव और अजीवका जो वियोग-पृथग्‌भाव है वह मोक्ष हैं तथा संवर भौर निजरा उसके कारण हैं। जिस प्रकार रोगी मनुष्यको रोग, इसके कारण, रोगमुक्ति और उसके कारण चारोंका जानना आवश्यक है उसी प्रकार इस जीवको संसार, इसके कारण, उससे मुक्ति और उसके कारण--चारोंका जानना भावक्यक हे । करणानुयोगमे मिथ्यात्व, सम्यक्‌मिथ्यात्व, सम्यक्तवप्रकृति गौर भनन्तानु- बन्धो क्रोध-मान-माया-लोम इन सात प्रकृतियोंके उपक्षम, क्षयोपक्षम अथवा क्षससे होनेवाली श्रद्धागुणकी स्वाभाविक परिणतिको सम्यग्दर्शन कहा हैं। करणानुयोगके इस सम्यग्दंनके होनेपर चरणानुयोग, प्रथमानुयोग भौर दरव्यानु- योगमें प्रतिपादित सम्यग्दर्शन नियमे हो जाता है। परन्तु शेष अनुयोगोकि सम्यग्दर्शन होनेपर करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन होता भी है ओर नहीं भी होता है। मिथ्यात्वप्रकृतिके अवान्तर मेद असख्यात लोक प्रमाण होते हैं । एक मिध्यात्वभ्रक्तिके उदयमे सातवे नरककी आयुका बन्व होता ह मौर एक मिध्यात्वप्रकृतिके उदयमें नौवें ्रैवेयककौ आयुका बन्ध होता है । एक भिथ्यात्व- प्रकृतिके उदयमे इस जीवके मुतिहत्याका भाव होता है मौर एक मिध्यात्वप्रकृति- के उदयमें स्वयं मुनिव्रत धारण कर अट्टाईस मूलगुणोंका निर्दोष पालन करता दै । एक भिध्यात्वके उदयते कुष्ण लेश्या होतो हूँ मौर एक मिध्यात्वके उदय




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