अनेकान्त | Anekant
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
69
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।
पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)' अनेकान्त/55/3 13
असद् आचरण से निवृत्त होकर सदाचरण में प्रवृत्ति करना ही अहिंसा का
वास्तविक रूप है।
प्रज्ञामूर्ति पं. सुखलालजी ने लिखा है “अशोक के राज्यकाल का अध्ययन
करने से ज्ञात होता है कि उनके व्यवहार में निवर्त्तक कार्यों के साथ प्रवर्तक
कार्यो पर बल दिया गया था। हिंसा निवृत्ति के साथ-साथ धर्मशालायें
बनवाना, पानी पिलाना, पेड़ लगाना आदि परोपकार के कार्य भी हुए है।
अशोक ने प्रचार किया कि हिसा न करना.तो ठीक है, पर दया-धर्म भी करना
उचित है...। व्यक्ति स्वयं दूसरों को कष्ट न दें, किन्तु रास्ते मेँ कोई घायल या .
भिखारी पड़ा है तो उससे बचकर निकल जाने से अहिंसा की पूर्ति नहीं होगी।
किन्तु उसे क्या पीडा है? क्यों है? उसे क्या मदद ही जाय? इसकी जानकारी
और उपाय किये बिना अहिंसा अधूरी है। अहिंसा केवल निवृत्ति मे ही
चरितार्थ नहीं होती। इसका विचार निवृत्ति में से हुआ है किन्तु उसकी
कृतार्थता प्रवृत्ति में ही हो सकती है।
अनुकम्पा-
पंडित प्रवर आशाधर जी ने लिखा है-
यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः।
न हि भूतटूहां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत्॥ धर्मामृत (अनगार) 4/6
जिसकी प्राणियों पर दया नहीं है उसके समीचीन चारित्र कंसे हो सकता
है? क्योकि जीवों को मारने वाले कौ देवपूजा, दान, स्वाध्याय आदि कोई भी
क्रिया कल्याणकारी नहीं होती।
विश्वसन्ति रिपवोऽपि दयालोः विजसन्ति सुहृदोऽप्यदयाच्च।
प्राणसंशयपदं हि विहाय स्वार्थमीप्सति ननु स्तनपोऽपि॥
धर्मामृत (अनगार 4/10)
दयालु का शत्रु भी विश्वास करते रँ ओर दयाहीन से मित्र भी डरते हैं।
ठीक ही है दृध पीता शिशु भी, जहाँ प्राण जाने का सन्देह होता है एेसे स्थान
से बचकर ही इष्ट वस्तु को प्राप्त करना चाहता है।
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