गल्पगुच्छ पहला भाग | Galpguchh Pehla Bhaag

Galpguchh Pehla Bhaag by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घाटको बात ८८ बस | अपनी हरी-हरी नई पत्तियोंको लिये सिर उठाकर खड़ा हो रहा था। घाम पड़नेपर उसकी उन पत्तियोंकी छाह मेरे ऊपर सारे दिन खेला करती, इसकी नई जड़ें बच्चोंकी डँँगलियोंकी तरह मेरी छातीके पास चुलबुलाया करतीं। कोई इसको एक भी पत्ती तोड़ता, तो मुझे पीर होती । यद्यपि उम्र काफ़ी हो चुकी थी, पर तब भी में सीधा था । आज নম নল রুল जानेसे अप्रवक्रकी तरह टेढ़ा-मेढ़ा हो गया हूं, गहरी त्रिकलि-रखाओंकी तरह शरीग्पर हज़ागें जगह दगरे पड़ गई हैं, मेरे भीतर दुनिया-भरके मेंट्रक जाड़के दिनोंमें लम्बी नींद सोनेकी त्यागियां कर रहे हैं, तब मेरी ऐसी दशा नथी। सिर्फ मेगे वाई' भुजममें बाहग्की तरफ दो इंटॉकी क्रमी थी, उस खोहमें एक चिगयाने घोंसला वना ख्या था। तड़के ही जब वह करवट बदलकर जागती, मछलीकी पक्र तरह अपनी वट पूँछको दो-चार बार जल्दी-जल्दी नचाकर सीटी देकर आकाशमें उड़ जाती, तब में समझ लेता कि कुसमके वाटपर आनेका समय हुआ । जिस लड़कीकी बात में कह रहा हूं, घाटकी और-ओर लड़कियाँ उसे कुसुम कहकर पुकारती थीं। शायद कुसुम ही उसका नाम था । पानीपर जब कुसुमकी छोटीसी छाया पड़ती, तो मेरे मनमें आता कि किसी तरह उस छायाको पकड़ रखें। उसमें कुछ ऐसी ही माधुरी थी। वह जब मेरे पापाणपर पैर रखती और उसके दोनों पंगेके छड़े बजते, तब मेरे शैंवाल्गुल्म मानो पुछकित हो उठते । ऊँसुम बहुत ज़्यादा खेलती या बतगती हो, या हंसी-मसखरी कग्ती




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