नीम के आंसू | Neem Ke Aansu

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Neem Ke Aansu by चन्द्र प्रकाश जायसवाल - Chandra Prakash Jayasawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हट्टा-कट्टा पहलवान रह जो किसी मार-पीट, लड़ाई-झगड़े के मोर्चे पर वक्‍त जरूरत काम आए। नहीं तो कोई भी उनके परिवार को कभी भी दबोच लेगा। ऐसे पहलवान आज भी गुरुओ से गुर सीखते-सीखते उखडते-उजडते अखाड के खम्भों को अपने कंधे का सहारा देकर गिरने से बचा रहे हैं। अपने गुरु और जय बजरंग केली तोड़ दुश्मन की नली के विश्वासं के साथ अखाड़े की संकरी गली में चले जा रहे हैं। वैसे तो अब अखाड़े वीरानी मे बहे जा रहे है। जवसे युवकों में बाड़ी बिल्डिंग, मार्शल आर्ट, जूडो-कराठे की लत बढ़ी है तबसे तो अखाड़ों में धूल उड़ने लगी है। उनकी ओर जाने वाले कौन कहे देखने वालो मे भी जबरदस्त गिरावट आयी है। पुराने खेवे के कुछ लोग पहलवानी को सेहतमन्द मानकर कसरत-क़बायदें करके मन में खुश हो रहे हैं कि चलो वे अपना स्वास्थ्य इस बुढ़ोती मे भी बरकरार रख रहे हैं और इमारत को ढहने से बचा रहे हैं। वे 'दूध पियो कसरत करो नित्य जपो हरि नाम' के हिमायती है। उन्हे देख कर भले ही लोग कहें कि लगता है कि यह इमारत जरूर कभी बुलन्दियों को छू रही होगी। लेकिन जो अब अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग-सहज हैं वे सार्वजनिक रूप से खुसरूबाग के खुशनुमा माहौल में आज भी सुबह-सुबह खुल्लम खुल्ला सारी हया-शरम को पीकर लँगोटा कसे कब्र के इर्द-गिर्द ऊपर- नीचे, दाएँ-बाएँ बुढ़ापे में कब्र पर पैर लटकाए कसरत करते स्वास्थ्य बनाते मिल जायेंगे। इन पहलवानों की जर्जर सेहत की गवाह शाहजादा खुसरू उनकी माँ तथा बहन की कब्र में केद उनकी रूह उन्हें इस मुकाम पर पहुँचा कर अहसास कराती हैं कि वाह! इत्महाबाद की जिन्दगी का रोजनामचा कया मजेदार- मसालेदार है। इन्हीं पहलवानों के लिए सुबह-सुबह भीगे मसालेदार अंकुराये चने बेचने वाले भी मिल जायेंगे जो दावा करते हैं कि उनके चने खाने वाले बुढापे मे भी घोड़े जैसा ताक़ृतवर बन सकते हैं। इसमें कोई शक्-सुबह नहीं है ये पुराने पहलवान एक तरह से जवानी की पहलवानी के दिए को जलाये रखने के लिए जिन्दगी का तेल बुढ़ापे में भी डालते जा रहे हैं और आज के जवानों की जवानी पर थूकते हैं कि ये लोग बिना कसरत-पहलवानी के जबानी नास कर रहे है। तन-मन दोनों से ये कुविचारों के कीचड़ में धंसे हैं इन्हें कोई निकाल नहीं सकता। दूषित आचार-विचार तथा बुरी संगत के कारण इन्होंने अपनी ज़िन्दगी बर्बादी के कगार पर ला छोड़ा है। बस वहाँ से गिरना काकी है। कभी भी किसी भी क्षण इनका गिरना तय है। ये तो हमारी जवानी के दिनों की धूल भी नहीं हैं। हम जिस नीम के आँसू 17




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