हिंदी कहानी : उद्वव और विकास | Hindi Kahani : Udwav Aur Vikas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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5 हिन्दी कहानी : उद्धव और विकास प्रायः शिकायत की जाती रही है कि गत पन्द्रह वर्षोमे सामने श्राने वाले अनेक कहानीकार अपनी वैयक्तिकता को सामाजिक दायित्व निर्वाह के नाम पर चित्रित करने की दृष्टि से जनेन्द्र-श्रज्ञ य स्कूल के कथाकारों से भी आगे बढ गए हैं और उनकी आत्मपरकता जैनेन्द्रकुमार, श्रज्ञय या इलाचन्द्र जोशी से भी कही श्रधिक गहरी है। उन्ही लोगो की यह्‌ भी हिकायत है कि श्रपनी व्यक्तिगत कुण्ठाओ, वर्जनाश्रो एव फ्रस्ट्रेशन के चित्रण कौरूछिपाने की प्रयत्नरीलता मे ही इन हिन्दी कहानियों में दुर्बोधता, साँकेतिकता, अमूतंता एवं जटिलता का आधिक्य हुआ है, जिससे हिन्दी कहानी एक विशिष्ट वर्ग के पाठकों तक ही सीमित रह गई है। इस आरोप एवं शिकायत मे वही तक सत्यता है, जहाँ तक कहानी मे जटिलता का प्रहत है । इस दृष्टि से इधर कुछ नए लोग एक जगह एकत्रित होकर कहानी मे सहजता लाने और फॉर्म के लिहाज से उसे सरलीकृत करने का जो प्रयत्न कर रहे है, वह एक महत्वपूर्ण एव इलाघतीय प्रयास कहा जाएगा, हालाँकि उनके प्रयत्नों को श्रभी साकार रूप ग्रहण करने मे समय लगेगा और प्रभ से इस सम्बन्धमे कु भी कहना कदाचित्‌ श्रथेहीन होगा । कहानी जीवन की शास्त्रीय आलोचना नही सहज व्याख्या है--इस बात को जब सभी लोग सर्वमान्य ढग से स्वीकारते हैं, तब सचमुच आरोपित प्रतीको, दुर्बोधता, जूटिलता एवं अमूर्त साँकेत्तिकता की बात समझ मे नही आरती । मै समक्ता हु, लेखक भ्रपने युगीन सामाजिक परिवेश मे कभी तटस्थ निर्वेधिक्तक श्रौर नि सग रह ही नही सकता, पर जब इसी परिवेश की समस्याझ्रो और प्राप्त अनुभवों को वह श्रपनी कहानियो मे चित्रण का माध्यम बनाता है, तो उसका अलग परय्यवेक्षक के रूप मे रहना वाँछनीय ही नही अ्रनिवारय होता है। ऐसी स्थिति मे सहजता की विराद सम्भावनाएँ अधिक स्वीकोारी जानी चाहिए । एक बात और ! कहानी में चित्रण का मूलाधार मानवतावादी ही होना श्रधिक कल्याणकारी होता है। इस कल्याणकारी का अर्थ रामराज्य श्रौर सुख- सम्पन्नता से जोडकर भआान्तियाँ नही उत्पन्त होनी चाहिए। वास्तव मे सावंभौमिक मानवता को कहानियो मे श्राघार प्रदान कर हम उसकी सवेजनीनता मे ही वृद्धि नही करते, समूचे विद्व को एक इकाई स्वीकार कर मानव की समग्रता का निर्माण भी करते है मनुष्य की सम्भूणेता ही उसका वास्तविक प्रतिमान हो सकता है । प्रत्येक मानव में पाशविकता के साथ दिव्यता भी है । इन दोनो के मध्य में कुछ-न-कुछ ऐसा भ्रवश्य है, जो मानवीय है, जिसे नैतिकता, इलीलता, संस्कृति, दिव्यता, कला एवं सौन्दर्यंबोध से सम्बन्धित करके देखा जा सकता है। इस मानवीयता का यथार्थ चित्रण ही वस्तुत* मानवताबाद है। मानवतावाद वास्तव में स्थिर तन रहकर परिवतंनशील रहता है । वतमान मनुष्य को विकास कौ एके कंडी स्वीकार कर भावी मनुष्य को विकास की श्रगली कडी के रूप मे स्वीकारा जा सकता है। भ्ररविस्दनेभी स्वीकारा




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