सूरदास और भ्रमरगीत सार | Surdas Aur Bhramargeet Saar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
44 MB
कुल पष्ठ :
289
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ्रमरगीत की परम्परा ओर स्वरूप 17
भंगार की प्रवृत्ति्यो स्पष्टतया दृष्टिगत होती हे । शृं गारकाल मे प्रवृत्ति की दृष्टि से कवियों की दो
कोटियाँ बनायी जा सकती हैं--(1)रीतिबद्ध, (2) रीति मुक्त । रीतिबद्ध कवियों में देव, बिहारी
मतिराम, पद्माकर, दास, ग्वाल जैसे कलाकारों ने वियोग-वर्णन के संदर्भ में यत्र-तंत्र उद्धव और
गोपी संवाद की भी चर्चा कर दी है, परन्तु भाव-तन्मयता, अनुभूति की प्रभविष्णुता ओर हदय
की सच्ची रागात्मकता का इन कवियों की रचनाओं में प्राय: अभाव है | ऐसी रचनाओं में कहीं
चमत्कारवाद का आग्रह है और कहीं अलंकरण की प्रवृत्ति पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है। सहजता
और सरसता इसमें उस कोटि की नहीं मिलती जिस प्रकार भक्त कवियों में प्राप्त हे। नमूने के
लिए कुछ कवियों की कविताएँ उद्धृत की जा सकती हैं--
(क) ऊधो यह सूधो सों संदेसों कहि दीजो भलो।
हरि खों हमारे ह्यो न फले वन कुंज हैं ॥
किंसुक गुलाब कचंनार ओ अनारन की
डारन ये डोलव अंगारन के पुंज हैं। -पद्माकर
(खः) ऊधो आए ऊधो आए हरि को संदेसों लाए।
सुनि गोपी गोप धाएं धीर न थरत हैं ॥
बोरी लगि दोरी उठी भोरी लो भ्रमति माती।
` गनति न गुनी गुरु लोगन दुरत है ॥
ह्वे गई विकल बाल बालम वियोग भरी ।
जोग की सनत জান गात ज्यों जरत है ॥
भारे भए भृयन सष्हारे न परत अग,
आगे को धरत पग यपाछे को परतहै॥ -देव
(ग) अधो / वहाँई चलो ले हमें जहँ कूबरी कान्ह बने एक ठोरी।
देखिय दास अधाय-अघायु विहरे याद मनोहर जोरी ॥
कबरी यो कषु पाए यत्र लगाइए कन्ह सों परीति की डोरी ।
कूबरी भक्ति बढ़ाइए बन्दि चढ़ाहए चन्दन-बन्दन रोरी ॥
रीतिबद्ध कवियों में जहाँ वस्तु-व्यंजना का आग्रह, ऊहात्मक प्रवृत्तियों की प्रधानता है, वहीं
रीतिमुक्त कवियों में भाव-व्यंजना का उत्कर्ष, संवेदना की प्रभविष्णुता और अनुभूति की गहराई
भी मिलती हे । रसखान, बक्सी हंसराज, घनानंद ओर आलम जसे रीतिमुक्त कवियों में इस तथ्य
का भलीर्भोति परीक्षण किया जा सकता हे ।
भक्त रसखान को रीतिकाव्य के आलोचकों ने रीतिमुक्ते कोटि के कवियों के अन्तर्गत
रखा हे । इन्होने “सुजान रसखान' नामक प्रन्थ मेँ भ्रमरगीत-विषयक सात छन्दो कौ रचना की हे,
जिनमें उद्धव को खरी-खोटी सुनाने के साथ ही कुब्जा-प्रसंग की बड़ी सरस ओर हृदयग्राहिणी
उद्भावना की गई है। इन छन्दो की एक प्रमुख विशेषता यह है कि रसखानजी ने इनमें कहीं
भी भ्रमर शब्द का प्रयोग नहीं किया, यद्यपि इन छन्द का शीर्षक भ्रमरगीत दिया गया हे । इन
छन्दो में “्रमर' की जगह उद्धव शब्द का प्रयोग हुआ हे । एक उदाहरण लँ ।
लाज के लेप चढ़ाड़ के अंग पवी खव सीख को मत्र सुनाइ के,
गारड़ी है व्रज लोय थक्यौ करि ओषद केतक सोह दिवाट़ के ॥
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