भारतकी अध्यात्ममूलक संस्कृति | Bharat Ki Adhyatam Mulak Sanskriti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) आक्रमण करती रहती ই | হুল जाक्रमणमें भी एक पवित्र भावना काम करती रहनी हे | वह मनुष्य ही भीतर विजेता बननेकी सामग्री प्रस्तुत करनी रहती हे । वह उसे विजेता बननेका भव्र देनेके लिए रेस करती है ¦ इस विपय- चासनारूपी काल्पनिक मायाको काठ्पनिक ज्ञानखड़से बधने रहन्म ही जीवन हे | सनुष्य अपने ही अज्ञानसे मोहस पड गया दै । ज्ञान सभाक्के पास है। ज्ञान सभीके भीतर है। ज्ञान सभीका अन्तरात्मा ह| ज्ञान सभीका सार और स्वरूप है | परन्तु सबका ज्ञान सबके अज्ञानोंकी चादरोंसे ढका जाकर अनुपयुक्त जवस्थाम जा पड़ा है। यह केसी विचित्र हस्यास्पद लीला हो रही है कि सब জনবল भोञ्जर हो गये ह} सब संसारको जाननेका तो खभिमानं॑ करते हैं परन्तु समार भरके महादुपंण अर्थात संसारदशंनके मूलं कारण अपने विषयं निपट धन्ये हैं। सब विपमूछित सर्पिणीके समान अपने अज्ञानमे छिपे पडे ड) सब संसारवेशा बननेका घमण्ड करते हुए भी जपनेसे अपरिचित हैं | सब गछेमें पढ़े होनेपर भी विस्मृत कण्टाभूपणके समान अपने ही सुख रूपको दूसरे दूसरे नाम दे देकर संसारभरमें ढ्वँंढ़ते फिर रहे हैं और उसे चहाँ न पाकर दीनताका ऋन्‍्दन मचा रहे हैं| अजानावरणके कारण इन्हे किसीको भी वास्त- चिकना नहीं दीख रही हें । शिक्षाको प्रत्येक मनुष्यके इस ज्ञानास्छादक अज्ञानको हराना है। शिक्षाघ्ते नया ज्ञान उत्पन्न नहीं करना, उसे मनुष्यके भोतर सुपुप्त अवस्थामें पड हुए सहजज्ञानकों जगाकर, प्रस्फुटित करके, देखने, अनुभव करने, प्रयोगमें छाने, उसका भानन्द्‌ भोगने तथा अन्तमे अपार डह्ल्यासके साथ उनी समा जानेमे मनुष्यकी सहायता करनीदहै। इस प्रकारके उदार जीवनी विधि जपने पारङोढे समश्च उपस्थित करनादही दस जाग्रत जीवनका उदइय हे । साघारण मनुष्यको सं मारके विषयमे कड़ा भ्रम है| बह संसारके पदार्थकि ल्ग अरग होनेके अममे उटक्षकर पदार्थौके भरगावकं भाधारसे भपने कर्तच्यकी दिशा बिगाड़ बेटा हे । यह दृश्यमान सारा ससार जिसे विचारका अनभ्यासी मनुष्य आपात दृष्टिसे अलग अलग पदार्थात्मक समझता है, अछग कछग पदार्थात्मक नहीं हे। यह सका सब मिरूकर




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