नव भारत | Nav Bhaarat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
276
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ १२ |
खैर, श्रपनी खोज में . मैं ज्यों-ज्यों श्रागे बढ़ा, नयी-ही-नयी दुनिया नज़र
आने लगी | मैंने देखा विश्व की सारी समाज रचना का 'नारी” ही उद्गम
स्थल है। स्वभावतः में ন 'জী-ঘুহম” ক্কা श्रध्ययन शुरू किया । जो कुलु समभ
में आ जाता उसे पत्र-पत्रिकाओं में मेज कर लोगों के मत संग्रह द्वारा अपनी
दिशा स्थिर कर लेने की चेष्टा भी करता जा रहा था। उन एकाध टुकड़ों
को देख कर कुछ महत्व पूर्ण पत्रिकाओं ने लिखा “लेख बढ़े ही उत्तम हैं।”
उत्तम या मध्यम, मुके तो केवल यह जानना था कि में कहीं। तक ठीक रास्ते
पर हूँ। रास्ते से भटका नहीं था, इतना मुके भरोसा हो गया | यह थी समाज
शास्र की दुनिया । एक और दुनिया दिखलायी पड़ी जिसे 'कल-युग” श्रर्थात
486 ग ४8८४४०८४ पुकारा जाता है। यद्द थी अर्थ-शातत्र की दुनिया
' हमारी रोटी-घोती ओर सुख-दुख की समस्याएँ हल होती हैं । ঘরই पहुँच
/ देखा कि संसार का सारा अर्थ-विधान कल-कारखानों के दुरूह् ढांचे
फँसा है। इस बात को भी मैंने लोगों के सामने एक मनोरञ्जक
3 के रूप में रखा, जिसका नाम ह्वी “कलयुग” था। यह सब आठ-दस
पहले क्री बात है जत्र मशरूवाला ओर कुमारप्पा ने अपने आामोदोगों
[ कोई दर्शनीय प्रयोग प्रारम्म नहीं किया था और न उनकी गांघीवादी
व्याख्याएँ ही हमें उपलब्ध थीं ।
जो भी हो, यह सब्र मेरे उस मूल प्रश्न के विभिन्न अंग थे जिसने आगे
चल कर नवभारत? का रूप धारण किया। वास्तव में मेरा विचार था कि
ध्नवभारतः का सम्पूणं सिद्धांत एक सुरचित पुस्तक के रूपमे प्रकाशित किया
जाय, परन्तु उसके पहले, मेने यह चाहा कि नवभारत? के कुद मुख्य-मुख्य
प्रश्नों पर लोगों के मत संग्रह कर लिए जायें। यह सन् ४० की बात है |
धनव-भारतः सम्बन्धी कुक प्रकाशित श्रौर् अ्रप्रकाशित लेखों को एकत्रित करके
मैंने एफनयी नज़र नया दृष्टि कोण का नाम दिया और एक परिचित प्रकाशक को
दिखाया भी । वह पुस्तकं को प्रकाशित तो कर नहीं सके परंतु यह ज़रूर किया
कि पुस्तक का नाम (एक नयी नज़र”? रखने की सख्त मनाही की | वह प्रकाशक
कैसे भी रदे, उनकी दलीलें व्रालत नहीं थीं। विवश होकर मैने पुस्तक को
धतवन्भारत! के भाम से ही प्रकाशित करने का निश्चय किया । सन् ४१ में (नव.
भारत” का सूत्रात्मक सझ्डलन प्रकाशित कर दिया गया, हालांकि उसे नवभारत
पुकारना उसी प्रकार अन्याय था जैसे किसी अबोध बालक को भी लोग 'सरकार!
कह कर पुकारते हैं ।
खैर (नवभारत, सामने झ्राया और भरी संपूर्णानन्द बेसे महा विद्वानों ने
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