बोधा ग्रंथावली | Bhodha Granthavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[हैः ) चुरा पुरा मेल उनके उन लेखो का नही है । बारहमासा के प्रसंगमे वेद्यक की जानकारी भी प्रदशित है। जिसके लिए मुर्े आयुर्वेद की अपनी जानकारी पर्याप्त नही” दिखी, फलतः अपने सुहृद्‌ कृपालू वैद्य अ्रायुवंदविभूषण पं० मदनमोहन भट्टाचार्य जी से सहायता की याचना करनी पड़ी। इसमे अनेक कारणो से अ्भिधान की कुछ विस्तृत योजना करनी पड़ी । जैसा कुछ पाठ है उसका सुसंगत प्र्थहीन लगे तो ग्राहक-पाठक के प्रयोजन को सिद्धि ही क्‍या हो सकती है । बुंदेलखंड के प्रयोगो की पूरी जानकारी जैसी मेरे ग्रु्रयं लाला भगवानदीन जी को उदेलखंड के निवासके कारण थो केसी मुभमे नहीं है। दूसरे बहुत से प्रयोग समयसापेक्ष भी होते है । बोधा के समय क कई प्रयोग अब उठ चुके है । इसलिये हो सकता है कि अर्थ कही क्वचित्‌ ठोक-सही न भी हो । पाठ संपादन करते करते मेरा पक्का विश्वास हो गया है कि सुसंगत अर्थ को दृष्टिपथ में बिना रखे यह काय विशद्ध वेज्ञानिक प्रणाली से हो नहीं सकता ।. जो परंपरा से पूर्णातया परिचित न हो जिसने पुराने ग्रंथों का यथावांछित आलोड़न न किया हो उसका इसमें हाथ डालना वैसा ही है जैसा बिच्छ का भी मंत्र न जानते हुए सर्प के बिल मे हाथ डालनेवाले का होता या हों सकता है । एक और तो पुराने ग्रंथोी' का पठन-पाठन उठता जा रहा है और दूसरी ओर पुराने ग्रंथों के संपादन की लिप्सा बलवती होती जा रही है । अपने नाम पर ग्रंथ संपादित करके प्रकाशित करा देना दूसरी बात है रौर पाठालोचन या पाठसंपादन का परमार्थतया कार्य करना दूसरी बात । परिणाम यह हो रहा है कि साढ़े तीन वद्ञो” को হজ लोग हनमान्‌ की प्‌ छ पकड़कर खोजते है । सारा जीवन इसी मे खपा देने पर भी जब मे” आश्वस्त नही हो पा रहा हूँ तब ये मित्र केसे निबह जाते है, अचंभे की ही बात है । इस अवसर पर कुछ थोड़ी सी अपनी सफाई देने की मुझे ग्रपेक्षा प्रतीत होती है । मैने जिन कवियों की ग्रथावलियो का संपादन किया उनकी विस्तत झालोचनाएँ क्यों नहीं लिखी । मैं यही मानता हूँ कि किसी कवि की आलोचना लिखने के लिये उसके ग्रंथो का ठीक टीक पाठ पहले अपेक्षित है । रीतिकाल या श्रृंगारकाल के प्रमुख कवियो के ग्रंथो का पाठशोध करके में चाहता था कि उनपर आलोचनाएँ लिख गा। सभा से भिखारीदास ग्रंथावली दो खंडो मे प्रकाशित हो जाने पर में ने तृतीय खंड के रूप मे भिखारीदास की संपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों पर समीक्षा ग्रंथ लिखने की सोची थी, इसका उल्लेख किया जा चू का है, घनञ्रानंद की ग्रंथावली प्रकाशित हो जाने पर उसका आलोचन करने का भी संकल्प किया था, प्रतिश्षत भी हो गया था । पर जीवन के संचालन का सूत्र जीव के हाथ में नहीं है । ग्रंथावलियों के संपादन में ही दो पन' बीत गए । जितनी संपादित करके रख छोडी है जीवनकाल मे उनके प्रकाशित हो सकने की संभावना भी क्रमश गिण होती जा रही है। आलम की चर्चा ऊपर कर ही चूका हूँ । ग्वाल, देव, . चंद्रशेखर वाजपेयी, सेवक आदि की ग्रंथावलियाँ पड़ी धूल फाँक रही है । हमारे ` गुरुजनो ने हिंदी पुराने के पुराने काम को साहित्यसेवा की भावना से ही स्वीकार किया था। उनके साथ कार्य करने से मुझमें भी वह्‌ भावना थोड़ी बहुत आओ




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