रमण महर्षि एवं आत्म ज्ञान का मांग | Raman Mahrshi Evam Atma Gyan Ka Maang
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
230
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रारम्भिक जीवन च
“ध्यान देकर सुनो | यह एक पहाडी की तरह है । इसकी क्रिया
रहस्यपूण है, जिसे मानव-मन नहीं समझ सकता | मुझे अपनी अवोध
आयु में ही यह पता चल गया था कि अरुणाचल की शोभा अद्वितीय है,
परल्तु जब किसी दूसरे व्यक्ति ने मुझे बताया कि यह तिश्वन्नामलाई ही
है तब मैं इसका अर्थ नहीं समझ सका। जब में यहां पहुँचा অন জুল
अपार शान्ति मिली और जैसे हो मैं इसके और निकट पहुँचा, मेरा मन
बिलकुल स्थिर हो गया ।”
यह् घटना नवम्वर, १८६५ की है। उस समय श्रीभगवान् कौ मायु
यूरोपीय गणना के अनुसार सोलह वप और हिन्दू गणना के अनुसार सत्रह्
वष थौ]
इसके शीघ्र वाद दूसरी पूव-सूचना आयी । इस बार यह एक पुस्तक के
माध्यम से आयी । दिव्य-सत्ता का आाविर्भाव इस पृथ्वी पर सम्भव है, इस
अनुभूति ने उसके हृदय को अवणनीय आनन्द से भर दिया। उसके चाचा कही
से पेरिया पुराणम् को एक प्रति माँग लाये थे । इसमे त्रेसठ तमिल शैव सन्तो
की जीवन-गाथाएँ हैं । वेंकटरमण ने जब यह् पुस्तक पटी तव उसका हृदय
अद्भुत आएचय से भर उठा कि इस प्रकार का विश्वास, इस प्रकार का प्रेम
मौर इस प्रकार का दिव्य-उत्साह सम्भव है और मानव-जीवन में इतना सौन्दय
भरा पडा है। प्रभु-मिलन के लिए प्रेरित करने वाली त्याग की कहानियों से
उसका हृदय श्रद्धा और प्रशस्ति के भाव से आप्लाबित हो उठा । उसे ऐसा
अनुभव होने लगा कि कोई ऐसी वास्तविक सत्ता है जो सभी स्वप्नों से महान्
है, जो सभी महत्त्वाकांक्षाओं से ऊँची है और जिसकी प्राप्ति सवया सम्भव है।
इस साक्षात्वार से उसकी आत्मा आनन्दमयी कृतज्ञत्ता से पृण हो उठी ।
इसके वाद से श्रीभगवान् चिन्तन में लीन हो गये । इस अवस्था में भक्त
को अपने चारो ओर की दुनिया की सुघ-बुध नहीं रहती, वह दृग और दृष्य के
दैव से ऊपर उट जाता है, शारीरिक मौर मानसिक भूमियों से ऊपर उठकर
दिव्य चैतन्य की अवस्था শী पहुँच जाता है, परन्तु यह अवस्था शारीरिक तथा
मानसिफ शक्तियो फे पूण प्रयोग के साथ सगत होती ३।
श्री भगवान् ने मत्यन्त सरलता के सायं इसका वणन. किया है कि किस
प्रकार मदुरा में प्रतिदिन सीनाक्षो मन्दिर के दशनो फे लिए जाते समय उनके
सन में यह ज्ञान-घारा प्रवाहित होने लगी थी পলক স্বাতী मे, “पहले मैंने
सोचा पिः यह् एक रकार का उबर दै, परन्सु मेने तिणय किया कि अमर यहु
ऐसा है तो यह मुर ज्वर है और इसे बने रहना चाहिए ।”
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