जैन दर्शन स्वरुप और विश्लेपण | Jain Darshan Swaroop Aur Vishleshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दर्शन * एक समीक्षात्मक अध्ययन ११ प्रयोगशाला जिन नियमो को प्रमाणित कर देतो है वे नियम पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिये जाते है। थे नियम सावंचत्रिक नियम कहे जाते है। इन्ही नियमो के आधार पर ही विज्ञान आगे बढता है। उपर्युक्त पक्तियो मे हमने दर्शन ओौर विज्ञान की सीमा के सम्बन्ध मे चिन्तन करते हुए यह्‌ पाया कि वे दोनो विभिन्न क्षेत्रो मे कायं करते है । दशंन इस विराट विरव को एक पूर्ण तत्व समझकर उसका परिज्नान कराता है और विज्ञान दुष्य जगत के विभिन्न अगो का पृथक्‌-पृथक्‌ अध्ययन करता है। इस दृष्टि से दर्शन का क्षेत्र अधिक विस्तृत है । विज्ञान केवल हक्य जगत तक ही सीमित है। विज्ञान का कायं पदार्थो का एकत्रीकरण, व्यवस्था और वर्गीकरण का है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से विज्ञान ने विश्व को तीन भागो मे विभक्त किया है। भौतिक (?/५४५४1), प्राण सम्बन्धी (8101981০41) ओर मानसिक (10९0141) । इन तीनो शाखाओ का ज्ञान ही आधुनिक विज्ञान का क्षेत्र है। इससे स्पष्ट है कि दर्शन और विज्ञान का क्षेत्र पृथक्‌-पृथक्‌ है । क्षेत्र ही नही किन्तु विधि में भी विभिन्नता है। विज्ञान की विधि सदा-स्वंदा आनुभविक (71९७) है किन्तु दशन की विधि केवल अनुभव नही अपितु युक्ति ओौर अनुभव से समिश्रित है । दर्शन और विज्ञान में दूसरा मुख्य भेद यह है कि विज्ञान अपने निर्णय का प्रदर्शन अपूर्ण रूप से करता है जबकि दर्शन अपने विपय का स्पष्टीकरण पूर्ण रूप से करता है। दर्शन और विज्ञान मे अन्तर होने पर भी दोनो का लक्ष्य एक है और वह है मानव-ज्ञान की सीमाओ को अधिक विस्तृत, अधिक व्यापक बनाना । दर्शन और धर्म दर्शन और धर्म मानव जीवन के लिए आवश्यक ही नही किन्तु अनिवार्य है, जिनके अभाव मे मानव पशु-तुल्य हो जाता है । कुछ लोग धर्म और दर्शन करो यथार्थवादी मानते है, तो कुछ परस्पर विरोधी, दो पृथक्‌ विन्दु , पर वस्तुस्थिति इन दोनो से भिन्न है । जब मानव विचारो के मन्त स्तल मे भ्रवेश करता है तवे दर्शन जन्म लेता है गौर जव विचार को माचारके रूपमे परिणत करता है तव धमं का जन्म होता है । धर्मं ओर दर्शन परस्पर पूरक है, एक के विना दूसरा एकाज्भी और अपूर्ण है। कोई व्यक्ति चिन्तन के आधार पर यह ज्ञान प्राप्त करता है कि “सत्यः जीवन के




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