मूक माटी | Mook Maati

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Mook Maati by आचार्य विद्यासागर - Acharya Vidyasagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अशं बिसे पामे ले वशा न वाते सहौ अन्यथा हमारा रधिर लाल होकर भो इतना द्ध क्यों ? और सेठ से मच्छर कहत्ता है सूला प्रलोभन मत दिया करो, स्वाधित जोवन जिया करो, कपटता की पदता को जलांगलि दो | गुदता को जनिका लघुता को भदांजलि दो) शालौनता कौ विज्ञालता में आकाश समा जाय, जोन उदारता का उदाहरण बने; धकारण ही- परके वख कासदाहरणहो। भौर अन्त मे पाषाण-फलक पर असीन नीराग साधु को वन्दना के उपरान्त स्वयं आतकषवाद कहता है है स्वामिन्‌, समग्र ससार हो दु.छ से ब्र है यहाँ सुह, पर वैषयिक, ओर बह भीं क्षणिक ! यह तो अनुभत हुआ हमें, परन्तु अक्षय सूख पर विश्वास नहीं हो रहा है । हाँ, हाँ, यदि अविनद्वर सुक्ष पासे के बाद आप स्वय उत्त सल को हमें बिला सकते या उस विवय में अपना अनुभव बता सकते तो हम भी माहवस्त हो आप जेसी साधना को जोबन में अपना सकें । तुम्हारी भावना परो हो, रेते वन दो हे, बड़ी कपा होगी हम पर । गुरु तो प्रवचन ही दे सकते हैं, 'बचन' नहीं । आत्मा का उद्धार तो अपने ही पुरुषार्थ से हो सकता है और अविनश्वर सुथ्थ बचनों से बताया नहीं जा सकता । बह तो साना से प्राप्तं आस्मोपसम्धि है। साधु की देशना है :




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