हिन्दी संतकाव्य संग्रह | Hindi Santkavya Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका १९ खेतों की ज़रूरत नहीं थी। हिंदुओं का युद्धप्रेम, अपने देश और अपने राजा के लिए लड़ मरने का हौसला खतम हो चुका था। सब को अपनी व्यक्तिगत चिता ही अधिक थी, एेसी स्थिति मे वीरकाव्य या (लयः. काव्य की कहां गुंजाइश थी । स्पष्ट है कि च्व रासो तथा उस ढंग के वारख-काव्य की आवश्यकता ही हिंदुओं को नहीं रह गई । पर इस के बाद ही जब देश में विदेशी शासन भी जम कर बेठता दिखाई दिया तब हिंदुओं की आँख खुली । पर अव क्या हो सकता था! चिड़ियां खेत चुन चुकी थीं अब सिवा खुदा की याद के दूसरा काम ही कया रह गया १ फलतः हिंदुओं का ध्यान ईश्वराराधन की ओर বা । तत्कालीन इतिहास हमें बताता है कि हिंदू जनता पर नवागत सुसलिम शासकों ने अनेक अमानुषिक अत्याचार किये | हिंदू प्रजा को रोटियों के लाले तो पड़ ही रहे थे साथ ही किसी प्रकार का नागरिक स्वत्व भी उन के पास न रह गया। बात बात पर अपमान, शारीरिक यंत्रणा की तो कोई बात ही नहीं, यहां तक कि हिंदुओं का साफ़ कपड़े पहनना, या घोड़े आदि की सवारी करना भी अपराध समभा जाने लगा और इस के दंड स्वरूप संपत्ति अपहरण, खाल खिंचवा कर भूसा भर देना, या कम से कम' सर मुड़वा कर गधे पर सवार करा शहर में घुमाया जाना आदि बहुत साधारण बाते' थीं | जो हो, इतिहासों में कहे हुए इन अत्याचारों की तालिका देने का यह अवसर नहीं है। हमारे कहने का तात्परय इतना ही है कि इस प्रकार की घोर राजनैतिक अशांति और देशव्यापी जातीय विपत्तिकाल में ही हिंदी के भक्ति-काल की नींव पड़ी। परंभिक समुसलिम राजत्वकाल में हिंदू श्रजा को अपना जीवन भारभूत हो गया था और सब ओर उसे नैराश्य का घोर अंधकार ही दिखाई पड़ता था | शाहाबुद्दीन गोरी के आक्रमण से लेकर तुगलकों के समय तक का तो यह दाल रहा; फिर तैमूर के प्रलयकारी आक्रमण ते हिंदुओं की बची खुची आशाओं पर भी पानी फेर दिया । घोर विपत्ति और निराशा में मनुष्य का विश्वास इंश्वर से भी उठ




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