प्राचीन भारतीय वेश-भूषा | Pracheen Bhartiya Vesh Bhusha

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Pracheen Bhartiya Vesh Bhusha by डॉ मोतीचंद्र - Dr. Motichandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ 9) कर सूतो वस्त्रो से हं । कारी की मलम बडी महीन होती थी ओर उससे पहनने के कीसती कपड़े बनते थे । फलक नाम का चस्तर शायद फल के रेशों से बनतां था! अपरांत भें बने वस्त्र को अपरांतक कहते थे । फुट्टक वस्त्र से शायद छोंठ का मतलब है । पुष्पपट् से किखाब का तात्पर्य है । भिक्षुक ढुथा श्रमण-ब्राह्मण वृक्षों की छालों के रेशों, घास इत्यादि के बने कपड़े और “ऊंट, बकरों इत्यादि के बालों के बने कंबल और जानवरों की खालें पहनते थे ! इस युग मे भारतं ओर रोम के बीच चमड़े ओर समूरों का अच्छा व्यापार था। सम्र चीन, तिब्बत इत्यादि देशों से भारत में आते थे । कुछ मामूली दरजे के चमड़े अथवा कंबल भी खंभात की खाड़ी हो कर पूर्वी अफ्रिका जाते थे 1 इस युम में कपड़े का इतना गहरा व्यापर था कि बहुत से व्यापारी केवल एक ही किस्म के कपडे रखते थे ! सोपारा मं काली के वस्त्रों की कान और छींट की दुकान का उल्लेख है । मदुरा में बजाजे का “जिक है । कार्वेरीपट्टन में कपड़े के दल्‍लालों का भी उल्लेख है । इस युग के साहित्य में वेश-भूषा का कम उल्लेख है । साधारणतः लोग धोती दुपट्टा पहनते थे । काशी के धोती दुपटटे प्रसिद्ध थे और कभी-कभी इनके बड़े ऊंचे दाम होते थे । राजे चौड किनारे वाके नये वस्त्र पहनते थे । मामूली किसान सन की धोती और छंगोटी पहनते थे । पगड़ी पहनने को भी प्रथा थी । राजे कभी-कभी कंचुक भी पहनते थे । अंग रक्षक और सिपाही तो अक्सर केंचुक और जिरह-बख्तर पहरते थे। दक्षिणी राजे जड़ाऊ टोपी और धोती पहनते थे । उच्च वर्ग के तामिल घोती पहनते थे और एक टुकड़े कपड़े से अपूने सिर ढंक लेते थे । अंग रक्षक कोट पहनते थे । यवन अंग रक्षक युद्ध क्षेत्र में कंचुक पहन कर पहरा देते थे । तामिल स्त्रियां पर तकं पहुंचती साड़ियां पहनतों थीं। वारवनिताओं की साड़ी आधी जांघ तक पहुंचती थी । जंगली स्त्रियां पत्तों की घघरियां पहनती थीं। गंधार की मूर्तियों और अर्थ चित्रों में आयी वेश-भूषा में हम-भारतीय ईरानी, और यनानी बेश- भूषाओं का सस्सिश्रण पाते हैं। राजे और सामंत पैर तक पहुंचती सिल्वददार धोती तथा चादर पहनते थे। चादर अनेक तरह से पहनी जाती थी। डोरी से .बने कमरबंद झब्बेदार होते थे । चदटी या खड़ाऊं पहनने की भी प्रथा थी | बाल अक्सर मोती की लड़ों ओर रत्नों से सजे होते थे, पर पगड़ी भी पहिनी जाती थी । ये पगड़ियां बंधी बंधाई पहिनी जाती थीं। शीष॑पट्ट बहुधा अलंकृत होते थे। एक शीर्षपट्ट पर 2 | का आकार है, इसरे पर सुवणं ओर नाग, तीसरे पर बुद्ध मृति और चौथे पर मोर। पगड़ी का ऊपरो सिरा पंखे जेसा होता था, ओर फेंटे खूब सजी हुईं। एक पणड़ी में गरुड़ मूर्तियों से एकं पट्टी है जिसके बंद हवा में पीछे फडफडाते दिखये गये हं । पगडधयों के निम्न लिखित रूप ह--चक्करवार पगड़ी, हल्की पगड़ी, त्रिकोण अलूंकार से सज्जित हलकी पगड़ी, चक्राकार हलकी पगड़ी, शीर्षपट्ट युक्त भारी पगड़ी। श्रेष्ठि गण धोती उत्तरीय और चादर पहनते थे। सरदी में कंचुक पहनने की प्रथा थी। कभी-कभी समं तुक मेक के लिए पट्टी होती थो । एक दाता कंचुक, वेककष्य ओर फुंदनेदार टोपी पहने है । सम्री अस्तर वाला चुगा भी कभी-कभी पहना जाता था गंधार को सूतियों में सिपाही दी तरह. के कपड़े पहनते भे।एक तरह के सिपाही धोती, पेटी और बेकक्ष्य पहलते थे । उनके बाल खुले अथवा पगड़ो से एके होते थे इसरी तरह के सिपाही खौद बस्तर पगडियां कमरबन्दं ओर परतले पहेनते थे । कभी-कभी सिपाही जंधिया भीः पहनते थे ।




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