मणि-माला | Mani-mala

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Mani-mala by पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ मणिमाल्ञा कमरे दीन दशा का पुरा प्रमाव देख पडता है । नाम चस्पा होने पर भी उसका रहे फाला पड़ गया है। शरीर में कहीं सोने का छल्ला तक नहीं। लेकिन पहले सोने के जेवर थे । उसके स्याद्‌ निशात असी शरीर पर बने हुए ই शोर किस तरह एक-एक कश्के थे गहने उतारे गये, इसका इतिहास भी उस अभागिन के हाथ-पेर ओर पेट-पीठ पर अट्डित है। यहाँ तक कि आखिरी स्बा की चोट का घाव अभी अच्छी तरह सूखा नहीं | बालिका धीरे-धीरे रोने छगी। तब माता आऑँचल से उसके आँसू पेछिते-पोंछते कहमे लगी--छी बेटी, कोई रोता है ! ज़रा धीरज्ञ घरो; वे आते हैंगे | बालिका तनिक देर तक और घूृमती-फिरती रही । बीच- बीच में वह खिड़की के पास आकर खड़ी द्वोती और, जहाँ तक नज़र जाती थी, देखती थी कि उसका पिता भ्राता है कि नहीं । छोेकिन उसको निराश होना पड़ा । दस बज गये। बालिका ने आकर कहा--मा, श्रव मुझसे रहा नहीं ज्ञावा। पिताजी कहाँ गये हैं ? “वे सकानें का किराया. वसूल करने गये हैं, अभी आते हैंगे। रुपया भुनाकर बाज़ारसे सौदा ज्लावेंगे। तुम्हारे लिए खाने के ओर बच्चे के लिए बेदाना ही धाचेंगे । बच, प्राते ही दमे । “एक वैसा दे। न अम्मा, लैया लाकर तव तक खा ॥




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