सूना मंदिर | Suna Mandir

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Suna Mandir by वि.स. खांडेकर - V.S. Khandekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाज री, १६ सूना मन्दिर तभी मौसी की आवाज सुनायी दी ओर मेरी आँख खुली | सभी सुंदर सपने भिस तरह अधूरे दी क्यो रह जाते हैं ! जेसे दी बाहर ञ्रुकर आयी तो सामने ही चितोपंत का थूथना दिखायी दिया । मोती हमेशा कहा करती ह कि यह चितोप॑त तो मेरा एक प्यारा, झबरा सा कुन्ता है ।-ठेकिन युते देखते दी मञ्चे तो भीद्ड की याद हो आती हे | छेकिन कते हँ कि सवेरे स्मेरे नीदसे थुठते ही, मीदड्‌ क्रा मुह देखना बडा ही कल्याणकारी होता है। ओर मैंने तुरंत द्वी अनुभव किया कि यह कथन बिल्कुक सच है | कभी दिनों से सोचती थी कि डे + अकवार अशोक को अपने घर खाने या चायपर बुलाअंगी | छेकिन कोंजी बहाना ही नहीं मिल रहा था| कल समाम आअुनका भाषण सुनने के लिये मोसी भी आयी थी । अरोक का भाषण सुनकर मासी अत्यंत प्रभावित ही ओर अनक प्रति असके दिल में घड़े ही आदर का भाव निर्माण हुआ | घर आने पर मेने अशोक को अपने घर किसी दिन खाने पर बुढाने का जिक्र किया | मौसी ने तुरंत अरे, तो जिसमें सोचने की क्‍या बात है ! कछ ही बुछा छो न ओअन्हें |? मेरा ख्याल था कि कहीं यह कमबख्त चिंतोपंत फिजूल दी, बीच में टांग न अड़ायें | लेकिन मोसी का बाल्य-सखा होने के कारण यह शैतान यहाँ का ठेकेदार बन बैठा है तो क्या हुआ ! अश्रमं तो वहं अशोक के मातहत में ही काम करता है | जैसे ही मोसी ने अशोक को बुलाने के लिये कहा, ओअसने असी सुरत बनायी मानो मुणष्किल से कड्ुओ दवाओ का घूढ इक के नीचे आतार रहा हो | असने कड्ओ सूरत तो जरूर बना दी लेकिन मुह से कहा कुछ नहीं | चुपचाप सिर झुकाओ षेठा रहा | अशोक के घर जाने के छिये में कपडे बदलने लगी | साड़ी बदरूते हुये, परसो का वह गीत भ गुनगुना रहीं थी - भरी में तो प्रेम-दिवानी--- अस चितोपत के कान बहुत ठंबे दं] बाहर दी से युखने पृष्ठ £ कहिये पुष्पा बहन, किसके प्रेम में दिवानी हओी हों ! ? अशोक के प्रेम में . यह जवाब बिलकुछ मेरे होठोंतक आया था ! लेकिन दूसरेंहि क्षण मांकी गोद में आने के लिये दरवाजे तक दौढते रुभे आकर सहसा अुसकी ओट में छिप जानेवाले घाकूक का सा मेरा हाल हो




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