मोहन-विनोद | Mohan-Vinod

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Mohan-Vinod by कृष्णबिहारी मिश्र - KrishnaBihari Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जी के कनिष्ठ पुत्र रायसिह जी थें। रायसिह जी को सं० १७०८ में आगरकानड परगना मिला था। सं० १८०७ में रायसिह जी के वंशज नाहरसिंह जी काछी-बडोदे में जाकर रहे। इनकी पॉचवीं पीढ़ी में महाराजा दलेलसिंह जी हुए। काछी-बड़ौदे के महाराज भगवंत- सिंह के कोई पुत्र न था। जब उनका रवर्गवास हो गया तब उनकी रानी ने दछेलसिह जी को गोद लिया। इस प्रकार महाराज दलेल- सिह जी काद्ी-वडदे की गही पर बिगाजं। हिज हादनेस महाराजा रामसिह जी इन्हीं महाराज दछेलसिह जी कै पुत्र-रत्न टं । हिज हाइनेंस सीतामऊ राज्य करी गही पर कंमे विराजे इसका विवरण इस प्रकार है :-- ऊपर बतला चके हैं कि महाराजा रतनसिह जी रतलाम राज- धानी से मारवा प्रान्त पर किस प्रकार हकूमत करते थे। रत्नसिष् जी के पौत्र का नाम केंशवदास जी था। केशवदास जी कं समय में एक दुखद दुर्घटना हुई। बादशाह औरंगजेब का एक अफ़सर मालवा प्रान्त में 'जजिया' कर वसूछ करने के लिये आया। अदृर दर्शी छोगों ने इसका बंध कर डाला । जब बादशाह को इसका समा- चार मिला तो वह बहुत अप्रसन्न हुआ और केशवदास जी की सम्पूर्ण जागीर जब्त कर ली एवं यह आज्ञा भी निकलवा दी कि केशवदास जी एक हजार दिन तक शाही दरबार में उपस्थित होने के अधिकार से वंचित किये गये। केशवदास जी वास्तव मं निर्देष थे, परन्तु इस समय वे कर ही क्या सकते थे। आखिर दरवार में उपस्थित होकर इन्होंने अपनी निर्दोषता पूर्ण रूप से प्रमाणित कर दी। बादशाह फिर प्रसन्न हुए और करीब सन्‌ १६९५ ई० में “न ११ --




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