कालरात्रि | Kalaratri

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Kalaratri by Tarashankar Vandhyopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हरि सिर भुकाकर भा खडा हुआ था और यह उसने देखा था । देखने की बात ही थी । सीता इस घर के लिए अतिथि नहीं है--वह इस घर का हर कोना पहचानती है--और पिछले दो बरसों से उलतेँ सब जगह अपने पैरो की छाप आक रव्खी है । शायद इस घर के सभी दरवाज़े उसके लिए खुल जाने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे लेकिन फिर भी कल जो कुछ हो गया उसे वे स्वीकार नही कर पा रहे और चुपचाप उसे हजम भी नहीं कर पा रहे । हरि इस तरह खडा होकर उसी परे- शानी को सुचित कर रहा है । और दिन कमरे मे आते ही हरि ढीठ हो जाता था--स्वभाव से वह ढीठ है हो--बहुत ज्यादा बोलता है । कमरे मे आते ही वह गुरू करेगा--आज क्या खाएगे ? मछली लाऊगा या मास ? कल रात को रजन बाबु ने फोन किया था । और शिव बावु ने भी फोन किया था । मैने उनको आने से रोक दिया है । आज ही बिजली का बिल देना होगा । जमादारनी रजिया आज पाच दिन से काम नहीं कर रही । कहने पर झगडा करने पर उतर आती है । इसी तरह की लगातार बाते । सवाद-प्रश्न-उत्तर । हाट-बाजार भौर चावल-दाल के भाव से लेकर राजनीति की बड़ी-बडी बाते करता है। वह हरि भी उस दिन गूगा बना खडा था । जान पडता है पुरे एक मिनट तक गूगी चुप्पी दम घोटनेवाली गंभीरता से भारी बनी रही थी । इससे अशुमान हाफ उठा था और पिछली रात की सारी स्मृतियो तथा न्याय-अन्याय की सब दलीलो को ज़बदंस्ती परे हटाकर कहा था--चाय ले भाओ । हरि ने कहा था--पानी चढा दिया है । वह जमीन की ओर देखता हुआ बाते कर रहा था । अशुमान विस्मित होकर बोला था--सीता के लिए चाय बनाई मेरे लिए क्यो नहीं बनाई ? -उन्होंने तो बाय पी ही नही । -नहीं पी ? सीता ने चाय नही पी ? शुमान लगभग चौक उठा था । सीता ने चाय तक नहीं छूई ? -नहीं। मैं तो अभी उठा हू । अभी तो बहुत सवेरा है । छः भी १७




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