दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव | Dakshin Afrika Ke Mere Anubhav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
450
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१३ दूसरा परिच्छेद
के काम से दम लेने की भी फुरसत न होगी; किन्तु वहाँ पहुँचकर
क्या देखा कि वे नङ्क पैर, खुले सिर, सिफं एक बहुत मोटे वख
का कुतों और पतद्धन पहने हुए खेत में कुदाल चला रहे हें। मेरे
लिए यह दृश्य बिलकुल नया था । में बारह वर्ष की अवस्था में
भारत चला गया था । वहाँ बिहार-प्रान्त के जिस देहात मे में
रहता था या जहाँ-जहाँ में घूम-फिर आया था, उस वातावरण के
अनुसार मेरी यह धारणा हो गई थी कि अपने हाथों से कोई काम
करना बढ़े आदमी के लिए उचित नहीं है। यहाँ तक कि अपने
हाथ से पानी ले लेना, धोती फींच लेना, घर में भाडू लगा देना,
पानि से लौटकर लोटा मँज लेना, खेती-बारी में घूम आना या
इसी प्रकार का और भी कोई काम कर लेना अमीरों के लिए
शोभा नहीं देता | ये सब हलके दर्ज के आदमियों के ही करने
योग्य काम हैं। परावलम्बी होना कितनी पापपूण और नारकीय
स्थिति है । उस समय इसकी कर्पना करना भी मेरे लिए कठिन
था। मैं एक ऐसे गुलाम देश से वहाँ गया था, जहाँ के अमीरों को
टट्टी फिराने के लिए भी एक नोकर की ज़रूरत होती है, जो लोटे
में पानी लेकर पीछे-पीछे चलता है। फिर महात्मा जी को कुदाल
चलाते हुए देखकर विस्मित होना मेरे लिए स्या कोई
अस्वाभाविक बात थी !
आश्रम के सभी सदस्य प्रातः चार बजे उठकर और नित्य-
कर्मो' से निवृत्त होकर महात्मा जी के साथ ही खेतों पर कुदाल
लेकर डटे हुए थे । ठीक आठ बजे कलेबवा का समय हुआ । सव
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