धर्मामृत (अनागर) | Dharmamrta (Anagara)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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সনদ ৯৯ অন্গমন্ধঘঈন যু: प्रोत्सहूमातोऽततिदूरमपि विष्यः । अपदेऽपि चुपरतृ्ः प्रतारितो भवति लेन दुर्मतिता ॥१९॥ जो अल््पमति उपदेशक मुनिधर्मको न कहकर धावकधर्मका उपदेश देता है उसको निनागम्े दण्डका पात्र कहा है। क्‍योंकि শষ ভুত मका भंग करके उपदेश देनेते अत्यन्त दूर तक़ उत्साहित हुआ भी शिष्य भोता तुच्छ स्थानमें ही सन्तुष्ट होकर ठ्याया जाता है। अतः वक्ताको प्रथम मुनिधर्मका उपदेश करना चाहिये, ऐसा पुराना विधान था ! इससे अन्वेषक विद्वानोके इस कथनमें कि जैन धर्म और वोद्धघर्म मूलतः साधुमार्गी परमं थे यथार्थता प्रतीत होती है । लोकमान्य तिरकने अपने गीता रहृत्यमें लिखा हैं कि वेदसहिता और ज्राह्मणोमें संन्यास आश्रम आवश्यक नही कहा गया | उछठा जैमितिले वेदोका यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गरहस्थाश्रमर्मे रहनेते हो मोक्ष मिलता है। उन्होने यह भी छिद्धा है कि जैन और वौद्धघर्मके प्रवर्तकोनें इस मतका विशेष प्रचार किया कि संसारका त्याग किये बिना मोक्ष नहीं मिलता । यद्यपि शंकराचार्यने जैन और बौद्धोफ़ा सण्डन किया तथापि जैन और वौद्धोते जिस संन्यासधर्मका विद्लेष प्रचार किया था, उसे हो घ्ौत्मातं संन्यास कहकर कायम रखा । भुछ विदेशी विद्वानोका जिनमें डा० जेकोवी' का नाम उल्हेखनोय है यह मत है कि जैन भोर बौद अमणोके नियम ब्राह्मणधर्मके चतुर्थ आश्रमके नियमोकी ही घनुक्ृति है । किन्तु एतद्रेशीय विह्ानोका ऐसा मत नही है क्योकि प्राचीन उपनिषदोंम दो या तीन हो आश्रमोक्रा निर्देश मिलता है। छान्‍्दोग्य उपनिषद्के अनुसार यृहृत्याथरमसते ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। शतपय ब्राह्मणे गृहृस्थाश्रमकी प्रशंसा है ओर तैत्तिरीयो१निषद््म भी सन्तान उत्पन्न करनेपर ही जोर दिया है। गौतम घमे- सूत ( ८८ ) में एक प्राचीन आचायंका मत दिया है कि वेदोकों तो एक गृहस्याप्रम ही मान्य है। वेदमें उठीका विधान है धन्य भाधमोका नही । वाल्मीकि रामायणर्मे संन्यासीके दर्शन नहीं होते। वानप्रस् ही दृष्टिगोचर होते है। महाभारत्तमें जब युधिष्ठिर महायुद्धके पश्नातृ संन्यास छेना चाहते है तथ भीम कहता है-- शास्तमें छिल्रा है कि जब मनुष्य संकटमें हो, या बृद्ध हो गया हो, या धरत्रुओसे भस्त हो तव उते संन्यास छेता चाहिए । भाग्यहीन नास्तिकोने ह संन्यास धलाया है । अतः विद्ानोका मत है कि वानप्रस्य घौर संन्यासको वैदिक आयेनि धवैदिक संस्कृतिसे छिया है ( हिम्दूधर्म समीक्षा पृ. १२७ ) अस्तु । जहाँ तक जैन साहित्यके पर्यादोचनका प्रश्न है उससे तो यही प्रतीत होता है कि प्राचोच समयमें एक मात्र कगार या मुनिर्मका ही प्राधान्य था, श्रावक घ्मं आनुषगिक था। जद मुनिधर्मको धारण फरने- की ओर अभिरुचि ध्षम हुई तथ आवक धर्मका विस्तार अवद॑ंय हुआ किन्तु मुनि धर्मा महत्व कमी भी कम नही हुआ, क्योकि परमपुरुषार्थ मोक्षकी प्राप्ति मुतिधमंके बिना नहों हो सकती। यह सिद्धान्त जैन धर्ममें गाज तक भी अक्षण्ण है। ५. धामिक साहित्यका अनुशीरूत हमने ऊपर लो तथ्य प्रकाश्षित किया है उपलब्ध जैन साहित्यके अनुशी छतसे भी उसीकता समर्थन होता है । सबसे प्रधम हम आचार्य बुन्दभुन्दकों छेते है। उनके प्रववनसार और नियमसारम जो জান্বাং विषयक चर्चा है वह खव केवल बनगार घम्से हो सम्बद्ध हैं। प्रवचतसारका तीसरा अन्तिम अधिकार न ते, इ, ६, बिल्द २२ कौ भस्तावना ए, १२।




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