श्री मानस-हंस अथवा तुलसीरामायणरहस्य | Shree Manas-Hans Athva Tulsiramayanrahasya

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Shree Manas-Hans Athva Tulsiramayanrahasya by श्रीमंत यादव शंकर आमदार - Shrimant Yadav Shankar Aamdar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` अनुवादकके चार शृ्द। /: ९ तैषी अ्कारिता । इससे यह निष्कर्ष निकछ सकता है कि असहकारिता का योग अध्हकारिता ते. ही किया जावे, न कि. सहकारिता झे ।. अन्यथा (अ-वह अत्याचार समझा जावेगा । । ` ` अव यदे प्रतियोगी चहकारिता का निरीक्षण किया जाबे, तो स्वरूप से सहकार से सहकार और अशहकार से अतहकार इस प्रकार से वह बोली जाती है । तो फिर कोई भी कह सकेगा कि वह अनत्याचारी असहकारिता की सौत न होकर प्रत्यक्ष उसके पेटकी बाला है। वास्तविक में ऐसा होने पर माता मपने प्रक्ष बेटी को यदि पापजात, ककर उपर अङ्गार बरसवि, तो छोक षी माताका षिःकार कथकर न कर! परंतु इन दोनों भी दलों से अपना प्रयोजन नहीं } उनके तरफ देखने का प्रथोजन इतना ही है कि देशम बडे २ महात्मा और अध्वर्युमें भी गुरुत्व का अमाव होने के कारण नागरिक स्थिति में भी हमारी शिक्षा' वराबर रीतिसे 'नहीं होती | इस विश्तृत विवेचन का निष्कर्ष यही हुआ कि भारतवासी जन जो प्रतिदिन अत्यंत हीन और द्वीन द्वी रहें हैं उपका मुख्य कारण .ोग्य गुरुका अभाव हीं है। यहीं' देखिये कि यदि यह अमाव न होता तो. आनक जैसे मानसविहारी ই कितने हीं दुग्वर होते | । ; 'रहा योग्य गुरुक. कर्तव्य । विषय बड दी व्यापक होने के कारण, हमारे दो शब्द के हद. के जहर हो जावेगा.| इसी डरके कोरण सारांश में ही कहना अब ठीक होगा कि देश, काछ, मर्यादा; साधनसामग्री, परंपरागत संस्कृति, प्राप्त परिस्थिति, इद्यादिकों.का _थक्तया और समुचय से. प्रिचार करके अपनी शिक्षो सेःजनता के अच्छे संस्कारों. को जो अधि- काधिक ऊर्मित करें वही योग्य गुरु समझन। चाहिये | :,.. ~“ ^




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