चिन्तन के विविध आयाम | Chintan Ke Vividha Ayam

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Chintan Ke Vividha Ayam by देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पारतीय चिन्तन में सोक्ष और मोक्ष-मार्ग | ५ साख्य और योग पुरुष को एक नहीं अनेक मानता है, यह जो अनेकता है वह सख्यात्मक है, गुणात्मक नही है । एकात्मवाद के विरुद्ध उसने यह आपत्ति उठायी है कि यदि पुरुष एक ही है तो एक पुरुष के मरण के साथ सभी का मरण होना चाहिए । इसी प्रकार एक के बन्ध और मोक्ष के साथ सभी का वन्ध और मोक्ष होना चाहिए । इसलिए पुरुष एक नही, अनेक है। न्याय-जैशेयिको के समान वे चेतना को आत्मा का आगन्तुक धर्म नही मानते । चेतना पुर का सार है। पुरुष चरम ज्ञाता है। स्वरूप की हृष्टि से पुरुष, वेष्णव-वेदान्तियो की आत्मा, जैनियो के जीव और लाई- वनित्स के चिद्‌ अणु के सदश है ! साख्य दृष्टि मे वन्घन का कारण अविद्याया अज्ञान है । आत्मा के वास्तविक स्वरूप को न जानना ही अज्ञान है । पुरुप अपने स्वरूप को विस्मृत होकर स्वयको प्रकृति या उसकी विकृृति समझते लगता है, यही सबसे वडा अज्ञान है। जव पुरुप और प्रकृति के बीच विवेक जा;त होता है--मैं पुरुष हूँ, प्रकृति नही,” तव उसका अज्ञान नष्ट हौ जाता है और वह मुक्त हो जाता है । कपिल मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध मे विशेप चर्चा नही करते । वे तथागत बुद्ध के समान सासारिक दु खो की उत्पत्ति और उसके निवारण का उपाय बतलाते है किन्तु कपिल के पश्चात्‌ उनके शिष्यो ने मोक्ष मे स्वरूप के सम्बन्ध मे चिन्तन किया है । बन्धन का मुल कारण यह्‌ है--पुरूप स्वय के स्वरूप को विस्मृत हो गया । प्रकृति या उसके विकारो के साथ उसने तादात्म्य स्थापित कर लिया है, यही वन्धन है। जव सम्यग््ञान से उसका वह्‌ दोषपूणं तादात्म्य का रम नष्ट हो जाता है तव पुरूष प्रकृति के पजे से मुक्त होकर अपने स्वरूप ঈ स्थित हो जाता है, यही मोक्ष है। साख्यदशंन मे मोक्ष की स्थिति को केवल्य भी कहा है । साख्य दृष्टि से पुरुष नित्य मुक्त है । विवेक ज्ञान के उदय होने से पहले भी वह मुक्त था, विवेक ज्ञान का उदय होने पर उसे यह अनुभव होता है कि वह तो कभी भी बन्धन में नहीं पडा था, वह तो हमेशा मुक्त ही था, पर उसे प्रस्तुत तथ्य का परिज्ञान न होने से वह अपने स्वरूप को भूलकर स्वय को प्रकृति या उसका विहार समझ रहा था । कंवल्य मौर कुछ भी नही उसके वास्तविक स्वरूप कां ज्ञान है । साख्य-योगसम्मत सुक्ति-स्वरूप में एवं न्‍्याय-वशेषिकसम्मत मुक्ति-स्वरूप में यह्‌ अन्तर है कि न्याय-वैशेषिक के अनुसार मुक्ति दशा मे आत्मा अपना द्रव्यरूप होने पर भी वह्‌ चेतनामय नही है | मुक्ति दशा मे चैतन्य के स्फुरणा या अभिव्यक्ति जैसे व्यवहार को अवकाश नही है । मुक्ति मे बुद्धि, सुख आदि का आत्यन्तिक उच्छेद होकर आत्मा केवल कूटस्थ नित्य द्रव्यरूप से अस्तित्व धारण करता है। साख्य-योग की दृष्टि से आत्मा सवेथा निर्गुण है, स्वत प्रकाशमान चेतना रूप है यौर सहज भाव से अस्तित्व धारण करने वाला है । न्याय-वैशेषिक के अनुसार मुक्ति दशा मे चैतन्य गौर ज्ञान का




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