रवीन्द्र - साहित्य तेरहवाँ भाग | Ravindra -Sahitya Part-13
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
136
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)देवताका ग्रास काव्य
मासीकी गोदीके किए । जल, हो, केव्रल जल
देखदेख होता था अधीर वह সলিনক |
मखण चक्रं कृष्ण ऊटिक निष्टुरतम
लोटुप लेलिह-जिह्न करूर महासपं - सम
छल-मय जल उठा-उठा फण लक्त ककत
फुफररता दे, गता हे, फुलाता दै वक्त,
करता है कामना ओः रहता है लालायित
मृत्तिकाके शिशुओंको लीलनेके लिए नित।
हे शत्तिके | स्नेदमयी, मौन, मूक वाक्यहीन,
अयि स्थिर, धव, अयि सनातन, हे प्राचीन,
ই आनन्द - धाम, सर्वं उपद्रव-सदे, আই |
श्यामल, कोमल तुम । चाहे कोद कहीं रहे
उसको अदृश्य बाहुब-युगल पसार स्पीय
दिन-रात खींचा करती हो केप्ते महनीय
विपुल आकर्षगसे, सुग्धे, आकाक्ता - विभोर
आदिगन्त-व्याप्त निज शान्त व्क ही ओर ।
चचल वालक वह आ - आकर प्रतिक्षण
ब्राह्ममसे पूछता था, उत्सुक अवीर बन,
“कितनी है देर, कथ आयेगा वताओ ज्वार १?”
आखिरको जलमे आवेगका हुआ संचार ।
दोनों तर चेते इस आके संवादपर |
घूमी नाव, मटका रस्सेने खाया चर-मर।
कलकल गीत गाता-हुआ, गर्रिसा-गरिष्ट
सिन्धुका विजय-रध नदीमे हुआ प्रविष्ट ,
ज्वार आया । नाविकोंने इष्टदेवक्रा ले नाम
उत्तराभिमुख नाव छोड़ी चट डॉर्ड थाम ।
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