रवीन्द्र - साहित्य तेरहवाँ भाग | Ravindra -Sahitya Part-13

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Ravindra -Sahitya Part-13  by धन्यकुमार जैन - Dhanykumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देवताका ग्रास काव्य मासीकी गोदीके किए । जल, हो, केव्रल जल देखदेख होता था अधीर वह সলিনক | मखण चक्रं कृष्ण ऊटिक निष्टुरतम लोटुप लेलिह-जिह्न करूर महासपं - सम छल-मय जल उठा-उठा फण लक्त ककत फुफररता दे, गता हे, फुलाता दै वक्त, करता है कामना ओः रहता है लालायित मृत्तिकाके शिशुओंको लीलनेके लिए नित। हे शत्तिके | स्नेदमयी, मौन, मूक वाक्यहीन, अयि स्थिर, धव, अयि सनातन, हे प्राचीन, ই आनन्द - धाम, सर्वं उपद्रव-सदे, আই | श्यामल, कोमल तुम । चाहे कोद कहीं रहे उसको अदृश्य बाहुब-युगल पसार स्पीय दिन-रात खींचा करती हो केप्ते महनीय विपुल आकर्षगसे, सुग्धे, आकाक्ता - विभोर आदिगन्त-व्याप्त निज शान्त व्क ही ओर । चचल वालक वह आ - आकर प्रतिक्षण ब्राह्ममसे पूछता था, उत्सुक अवीर बन, “कितनी है देर, कथ आयेगा वताओ ज्वार १?” आखिरको जलमे आवेगका हुआ संचार । दोनों तर चेते इस आके संवादपर | घूमी नाव, मटका रस्सेने खाया चर-मर। कलकल गीत गाता-हुआ, गर्रिसा-गरिष्ट सिन्धुका विजय-रध नदीमे हुआ प्रविष्ट , ज्वार आया । नाविकोंने इष्टदेवक्रा ले नाम उत्तराभिमुख नाव छोड़ी चट डॉर्ड थाम । १७




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