प्रेम सुधा भाग ३ | Prem Sudha Part-3

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Prem Sudha Part-3 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तिंलक-जंयन्ती ] [६ शधं पुदूगल पराव्रत्तेन काल में पुनः अपने स्वरूप की ओर आक्ृष्ट होकर सिद्धि प्राप्त कर लेता है। सम्यक्त्व॒ का यह सोहाल्य मामूलो नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि वश्रमण करने वाले जीव को सुरेन्द्र, नरेन्द्र श्रौर नागेन्द्र आदि का बैसव मिल जाना सरल है, सगर समस्त दुःखो के क्षय का कारण, परम पावने सम्यक्त्व प्राप्त हो जाना कंठिन है ! सम्यरदशन के प्रादुर्भाव से आत्मा में एक प्रकार की विशुद्धता आजाती है | आत्मा को अनिबंचनीय शान्ति फा आभास होने लगता है। उसकी दृष्टि की विषमता दूर हो जाती है और समभाव की जाग्रति हो जाती है | दृष्टि की विष- मठा दूर होने पर सम्यग्दृष्टि के लिए सभी विषम भाव सम वन जाते है । शाख मे बतलाया -गया है कि सम्यग्टष्ि अमर मिथ्या शाखो को पदता है तो वे भी उपके लिए सम्यक्‌ श्रुत हो जाते दै पौर मिथ्यादृष्टि के लिए. सम्यक्‌श्रुत भी मिथ्या श्रुत वन जाते हैं। आप विचार फरे कि यह कैसे होता दै १ शाख वही है, उनॐ पाठ वदी के वही है, शब्दो मे कुदं मी अन्तर नदी पड़ता, फिर मिथ्यादृष्टि के लिए वह्‌ मिथ्या श्रौर सम्यग्टष्टि के जिए मम्यक्‌ कसेः हो जाते है ? इस प्रश्न पर आप गहराई से विचार करेंगे तो भ्रतीत होगा किं सम्यग्दशंन आत्मा से किस प्रकार का विवेक उत्पन्न कर देता है । सम्यण्ष्ि मे जो समभावना जागृत हो जाती है, उसी को यह प्रभाव है कि वह विषम को भी सम रूप में परिणत कर लेता है।




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