धरती माता | Dhartee Maata
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
326
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)७ धरती माता
शिवनाथ ने नजर उठायी, वास्तव में वक्त अब था नही, सूरज अस्ताचर
को जा चुका था, पूरब दिशा धुधली होती आ रही थी ।* वह बरामदे में
खड़ा हो गया और चारों ओर नजर दौड़ाकर बोला--भमगर ये सब-के-सब
चले कहाँ गये आखिर ए
शम्भू ने सयाने के समान गदेन दिखाकर कहा-अपने धर । भूख
लगी होगी, सब अपने-अपने घर चले गये ।
मगर शिवनाथ को यह जवाब कुछ जँचा नहीं)। ভীহা ভীছা উন আম
ये; फिर, भूख से बेचेन हो घर केसे चले जायेंगे सला | कुछ सोचकर
उसने कहा--तू जरा पेड़ पर चढ़कर ऊँचाई से तो देख कि कहीं कोई
दिखायी देता है या नहीं । उस बहेड़ के पेड़ पर चढ़, काफी ऊचा है,
दृर् तक देख सकेगा ।
शम्भू, छिपकिली के समान ही सहज ठंग सँ, उस रम्ब पेड के तने पर
चढ़ गया । लगभग चोटी पर ही जा पहुँचा और वहाँ से उफ्ककर चारों
ओर देखा और बोछा--आप भी जसे बाबू, भला वे अब कहाँ दीख सकते
हैं | वे जरूर फड़वी खाने को घर चले गये हैं ।
हताश होकर शिवनाथ ने एक लम्बी उसाँस फेकी । सम्भू पेड़ से
उतरता आ रहा था । दिगंत की ओर आँखें दौड़ा कर वह मजे के सुर से
गा उठा--1%७ ४90ए 880०0 ०8 899 701:210 0907. उसे केसावियनका
की याद आ गयी। वह अपनी जगह से एक कदम भी नहीं हटा
..था। शिवनायने समुद्र नहीं देखा, कभी जहाज भी नहीं देखा, किन्तु
` फिर भी उसकी आँखों में केसावियनका की तखीर खिच आयी । नीर.
पारावार, उसके बीच छपटों में झुछलता जहाज और जहाज के भीतर खड़ा
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