धरती माता | Dhartee Maata

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Dhartee Maata by श्री ताराशंकर वन्धोपाध्याय shri tarashankar vandhopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ धरती माता शिवनाथ ने नजर उठायी, वास्तव में वक्त अब था नही, सूरज अस्ताचर को जा चुका था, पूरब दिशा धुधली होती आ रही थी ।* वह बरामदे में खड़ा हो गया और चारों ओर नजर दौड़ाकर बोला--भमगर ये सब-के-सब चले कहाँ गये आखिर ए शम्भू ने सयाने के समान गदेन दिखाकर कहा-अपने धर । भूख लगी होगी, सब अपने-अपने घर चले गये । मगर शिवनाथ को यह जवाब कुछ जँचा नहीं)। ভীহা ভীছা উন আম ये; फिर, भूख से बेचेन हो घर केसे चले जायेंगे सला | कुछ सोचकर उसने कहा--तू जरा पेड़ पर चढ़कर ऊँचाई से तो देख कि कहीं कोई दिखायी देता है या नहीं । उस बहेड़ के पेड़ पर चढ़, काफी ऊचा है, दृर्‌ तक देख सकेगा । शम्भू, छिपकिली के समान ही सहज ठंग सँ, उस रम्ब पेड के तने पर चढ़ गया । लगभग चोटी पर ही जा पहुँचा और वहाँ से उफ्ककर चारों ओर देखा और बोछा--आप भी जसे बाबू, भला वे अब कहाँ दीख सकते हैं | वे जरूर फड़वी खाने को घर चले गये हैं । हताश होकर शिवनाथ ने एक लम्बी उसाँस फेकी । सम्भू पेड़ से उतरता आ रहा था । दिगंत की ओर आँखें दौड़ा कर वह मजे के सुर से गा उठा--1%७ ४90ए 880०0 ०8 899 701:210 0907. उसे केसावियनका की याद आ गयी। वह अपनी जगह से एक कदम भी नहीं हटा ..था। शिवनायने समुद्र नहीं देखा, कभी जहाज भी नहीं देखा, किन्तु ` फिर भी उसकी आँखों में केसावियनका की तखीर खिच आयी । नीर. पारावार, उसके बीच छपटों में झुछलता जहाज और जहाज के भीतर खड़ा




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