समयसार: | Samaysaar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
416
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गाथा स०
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१३६-१३६
१४०-१४४
१४५-१४६
१४७-१४८
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विषय
यदि कहाजाय जीव परिणामी होने से द्रव्य कोध के निमित्तके विता
भाव क्रोध रूप परिणम जाता है, क्योकि वस्तु शक्ति दूसरे की भ्रपेक्षा
नही रखती तो मुक्तात्मा भी क्रोध रूप परिणम जायेगी
पुण्य पाप झादि सात पदार्थ जीव श्रौर पुदुगल के सयोग परिणाम
से उत्पन्न होते हैं
गाथा ७४ से १३० तक की समुदाय पातनिका
वाह्याभ्यंतर परिग्रह से रहित श्रात्मा को दर्शन ज्ञानोपयोग स्वरूप अनुभव
करने वाला निर््रथ साधु होता हं
जितमोह का लक्षण
जो साधु शुभोपयोगरूप धमं को छोडकर शुद्ध उपयोग ्रात्मा को जानता
हे वह् धमं परिग्रह से रहित ह ।
जिन भावो को भ्रात्मा करता है उन का वहु कर्ता होता है ज्ञानी ज्ञानमय
भावो का श्रौर श्रज्ञानी भ्रज्ञानमय भावो का कर्ता है
निविकल्प समाधि मे परिणत वाला भेद ज्ञान
श्रज्ञानी कर्मों को करता है ज्ञानी कर्मों को नही करता हैं
तीनग्रुप्ति रूप भेदज्ञानवाले ज्ञानी के सब भाव ज्ञानमय होते हैं श्रज्ञानी
के सब भाव श्रज्ञानमय होते
उपदान कारण सहश कायं होता है
देवो मे उत्पन्न होने वाले सम्यण्ष्टि के विचार तथा आगति
भ्रनुवादक द्वारा शुद्धोपयोग का लक्षण
मिथ्यात्व, श्रसयम, भ्रज्ञान, कषाय व योग के उद्यसे जो परिणाम होते है
उनसे वध होता
कर्मोदय होने पर यदि जीवरागादि रूप परिणमता है तो बध होता है ।
उदय मात्र से वध नही होता । यदि उदय मात्र से बध होने लगे तो ससार
का भ्रभाव ही न हो, क्योकि ससारी के सदा कर्मोदय रहता है
जीव के और कर्मों के दोनो के यदि रागादि भाव होते हैं तो दोनो को
रागी होना चाहिये
यदि श्रकेले जीव के रागादि परिणाम मान लिये जावे तो कर्मोदय के
নিলা भी होने चाहिये
क के विना भी रागादि भावहो जावे तो शुद्धजीवो केभी होने
चा
द्रव्य कर्म अ्रनुपचरित भ्रसद्धःत व्यवहारनय से श्रौर আন আহত
निश्चयनय से रागादिका कर्ता ह
श्रनुपचरितस द्ध. त व्यवहारनय की श्रपेक्षाश्रशुद्ध निश्चयनय को निश्चय-
सज्ञा है किन्तु शुद्धनिश्चय नय कौ श्रपेक्षा श्रशुद्धनिश्चयनय व्यवहार हौ है
जीव भ्रौर पुद्गल दोनो कमं रूप परिणमन करे तो दोनो एकपने को प्राप्त
पृष्ठ स०
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