साधनसंग्रह - दूसरा खंड | Sadhansangrah - Dusra Khand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दासभाव ३८६ ओऔमगवान के निर्मल यश को सुनकर मेरे अन्तःकरण में रज्ञोगुणी समीर तमोगुणी कुत्लिन ब्रक्तियोंका नाश करने वाढी भक्ति उत्पन्न हुई । सव साधनाभमि श्रीउपास्यद्रेवदो सेवा ही सुख्य है, अन्य सच कुछइलके अन्तर्गत हैं भोर इसके चिना अन्य सव कमं यथार्थं श्ट्ेइय को पूरा कर नहीं सकते | इस सेचा-घर्से सब प्राणि- योकाबहुत बड़ा उपकार होना हैं. ऋतएव संसारके कल्याण कै निनित्त ही श्री उपास्यदेव सेवा-धर्म ( शुद्ध भाव से किया ভুলা) ক चरते हैः- রর श्रीमदुसागवत पुराणका बचने हैः- तज्जन्म तानि' कर्माण तदायुस्तन्मनो वचः। नुणां येनेह विश्वात्मा सेव्यते हरि रीश्वरः । ६ । किंजन्ममिखिभिरवेह शौकलसाध्रैचयाक्ेकैः । कमैभिवी व्रयीपोक्तैः पुसो पि बिवुधायुपा । १० ॥ श्रुतेन तपरा वा करि वचोभिरिचत्तद्रन्तिभिः । ,बुदध्या का किं निपुणया व्ेनेद्रियराधसा । ११। किंवा योगेन सांख्येन न्धास्तस्वाध्याययोरपि । किंवा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रद। हरिः । १२। श्रेयसामपि समैषामात्मा हवधिरर्थतः । सर्वैषामपिभृतानां हरिरात्मात्मदः भियः ॥ १३। यथा तरोरंलनिषेचनेन तप्यन्ति तत्स्कन्धञ्चुजोप शाखाः । माणोपहाराच्च यथेन्दियाशां तथेव सवाहण मच्युतेज्या ॥ १४ ॥ ( सक० ४ अ० ३१ ) अओनारदजी ने कहा-हे राजाओं - इस खंखारमें जिसके द्वारा पिश्वव्यापी श्षीसगवानकी सेवा हं।ती है वही जन्म, वही मन, वही




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