हिंदी के समस्या नाटक | Hindi Ke Samasya Natak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी के समस्या नाटक | ३२ है । संस्कृत नाटकों के विकास के इतिवृत्त को देखने से ऐसा लगता है कि कला-साधता के जिस सुमेरु पर कालिदास ने संस्कृत नाटकों को पहुँचा दिया उसके ऊपर कोई रो नहीं थी । इसी से तो कालिदासोत्तर काल में संस्कृत के नाटककारों का श्रादर्श बस इतना भर रह गया कि वे कालिदास की नकल करें उस ऊँचाई तक पहुँचने की चेष्टा करें जिस पर कालिदास ने पहुँच कर विजय-वैजयन्ती फहरायी थी । तभी तो हुष॑ जैसे नाटककार की प्रतिभा शिल्प-साधना के क्षेत्र में ही अपने लिए गूजायश बना सकी म्त्यत्र नही । हर संस्कृत के श्रगले नाटककारों में विशाखदत्त रचित मुद्रारान्स विशाखदत्त एक विशिष्ट. व्यक्ति ठहरते हैं। उनकी भ्रमर कृति है-- मुद्राराक्षस । मुद्राराक्षस का कथानक रामायण अ्रथवा महाभारत से न ले कर भारतीय इतिहास से लिया गया है--यह उसकी एक महत्व- पूर्ण विशेषता हैं । इस नाटक से यह भी सुचित होता है कि रपगीरि-गए पा भी नाटकीय कथानक का विषय बन सकती है । इस नाटक में दो निषुण मंत्रियों-- चाणक्य श्र राक्षस--के ढ्न्द्र की चर्चा होती है । चस्द्रगुप्त की रक्षा में चाणक्य श्रौर मलयकेतु की रक्षा में राक्षस अ्रपनी-भ्रपनी कूटनीति का प्रयोग कर रहे हैं । नाटक के इन दो नीति-निपुरा मंत्रियों के संघर्ष में पड़ कर नन्दवंश की राज्यलक्ष्मी जैसे भूले में भूल रही है। चन्द्रगुप्त का मगध की राजनगरी पाठलिपुत्र पर श्रधिकार हो गया है । नत्दवश का अन्तिम श्रवशेष सवीथ॑सिद्धि राजनीति से संन्यास ले कर विरक्त हो गया है । लेकिन फिर भी राजा नन्द का स्वामिभक्त मंत्री राक्षस उनके नाम पर संघष कर रहा है चाणक्य की राजनीतिक योजनाश्रों को भ्रस्त-व्यस्त करने में लगा हुभ्रा है । चाणक्य गौर राक्षस में कोई किसी से ज़रा-सा भी कम नहीं है । बस कहिए-- प्रदन यदि था एक तो उत्तर द्वितीय उदार। चाणक्य का यह विश्वास है कि जब तक राक्षस चन्द्रगुप्त पर कृपा करके उसका मन्त्री-पद स्वीकार नहीं करता चन्द्रगुप्त का कल्याण नहीं है । इसी से नाटकीय कथावस्तु का एक श्रौर केवल एक लक्ष्य हो जाता है--किसी प्रकार राक्षस को चन्द्रगुप्त के प्रति श्रनुस्त बनाना । नाटक के सारे व्यापार बस इस घुर-मुल के चारों श्रोर चक्कर काटते हैं । मुद्दा राक्षस की विशिष्टता इस श्रर्थ में भी है कि उसके पात्र जोड़े में रखे गये हैं । जोड़े के एक को जानने-पहचानने के लिए दूसरे को भी जानना ही होता है । ऐसा लगता है कि नाटक के दो खीमें हैं । नाटकीय कथावस्तु के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पात्रों का एक दल योजना बनाता है भ्रागे बढ़ता है तो कि उसे बाधित करने की पक्की योजना ले कर प्रा उपस्थित होता ले नाटकाय कथावस्तु को उद्द दय-सिद्धि के प्रति नाटककार की विरल तन्मयता है निष्ठा है । इसका ही परिणाम है कि विपक्षी पात्र भी ग्रनजाने ऐसे कृत्य कर जाते हैं जिनसे चरम-लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में ही प्रगति होती है । सब मे चाणक्य की विजय होती है श्र उसका समान-धर्मा राक्षस जो विफल




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