श्री योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग 1 | Shri Yougvashist Bhasha Vol 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
48 MB
कुल पष्ठ :
826
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वैराग्य प्रकरण । ६
रूपी समुद्र के पार करने को जहाज हे ओर इससे सब जीव इताथे हगि ।
इतना कहकर ब्रह्माजी, जैसे समुद्र से चक्र एक सुहूत्तं पयेन्त उटठके फिर
लीन हो जावे वेसे ही अन्तद्धांन हो गये। तब मैंने मारदाज से कहा, हे
पुत्र | बरह्माजी ने क्या कहा ! भारदाज बोले हे भगवच् ! ब्रह्माजी ने
तुमसे यह कहा कि हे मुनियों में श्रेष्ठ | यह जो तुमने राम के स्वभाव के
कथन का उद्यम किया हे उसका त्याग न करना; इसे अन्तपयेन्त समाप्ति
करना क्योंकि; संसारसमुद्र के पार करने को यह कथा जहाज हे ओर
इसते अनेक जीव इतां होकर संसार संकट से मुक्क होंगे। इतना कह
कर फिर बाट्मीकिजी बोले हे राजस्! जब दस प्रकार ब्रह्माजी ने मुकसे कहा
तब उनकी आश्ञानुसार मैंने ग्रन्थ बनाकर भारदाज को सुनाया | हे पृत्र !
वशिष्ठजी के उपदेश को पाकर जिप्त प्रकार रामजी निश्शेंक दो विचरे
हैं बेसे ही तुम भी विचरों । तब उसने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! जिस
प्रकार रामचन्द्रजी जविन्मुक्त होकर बिचरे हैं वह आदि से क्रम करके
मुझसे कहिये ? वाल्मी किजी बोल, हे भारढाज ! रामचन्द्र, लदमण, भरत
शतुष्न, सीता, कोशस्य, सुमित्रा भोर दशरथ ये आट तो जीवन्मुक हृष
द भोर भाट मन्त्री अष्टगण वशिष्ट ओर वामदेव से भादि अष्टाविंशति
जीवन्मुक्क हो बिचरे हैं उनके नाम सुनो । रामजी से लेकर दशस्थपयन्त
आठ तो ये कृताथ होकर परम बोषवान् हुए हैं ओर १ कुन्तभासी, रशत
वधन, ३ सुखधाम ४ विभीषण, ५ इन्द्रजीत, ६ हनुमान, ७ वशिष्ठ और
८ वामद॑व ये अष्टमन्त्री निश्शद हां चेष्टा करते भयं भोर सदा अदवेत-
निष्ठ हूए दै । इनको कदाचित् स्वरूप से दवेतभाव नर्द फशदहे।ये
अनामय पद की स्थिति में तुस रहकर केवल चिन्मात्र शुद्धपर परमपावनता
को प्राप्त हुए हैं
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वेराग्यप्रकरणेकथारम्भवणनो नाम प्रथमस्सगः॥ १॥
भारद्वाज ने पूछा हे भगवन् जीवन्पुक्त की स्थिति केसी हे भोर
रामजी केसे जीवन्मुक्क हुए हैं वह झादि से अन्तपयन्त सव कहो!
वाल्मीकेजी बाल, है पत्र | यह जगत् जां भासता हैं सा वास्तविक
कुछ नहीं उत्पन्न हुआ; झविचार करके भासता हे भोर विचार करने से
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