श्री निरयावलिका सूत्रम् | Shri Niryavalika Sutram Ac 6 Mlj

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Shri Niryavalika Sutram Ac 6 Mlj by शिव मुनि जी महाराज - Shiv Muni ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निर्माण किया है, वह श्वेताम्बर मान्य आगमो के आधार पर ही किया है। यद्यपि कतिपय ऐसे सूत्र भी तत्त्वार्थमूत्र मे है जिनका समन्वय वर्तमान मे उपलब्ध आगमो से नही हो सका, किन्तु एेसे सूत्र इने गिने ही है। तत्वार्थसृत्र और जैनागम समन्वय नामक यह पुस्तक दिगबराम्नाय के धुरन्धर पण्डितो के हाथ को जब सुशोभित करने लगी, तब उन्होंने उमास्वाति जी से पूर्व प्रणीत दिगम्बरमान्य षघट्खण्डागम और कुन्दकुन्द आचार्य प्रणीत ग्रन्थो के आधार पर समन्वय करने का श्रीगणेश किया! वे समन्वय करने मे वर्षो यावत्‌ अनथक परिश्रम करते रहे। निरन्तर परिश्रम अनेक पण्डितो के द्वारा करने पर भी कुछ ही सूत्रो का समन्वय करने पाए, अन्ततोगत्वा हताश हो कर इस ओर उपेक्षा ही कर ली। जब कि आचार्य प्रवर जी ने दम दिनों मे हौ समन्वय कार्य सम्पन कर लिया था। यह दै उनकी स्मृति ओर आगमाभ्यास का अद्भुत चपत्कार। दिगम्बरमान्य तत्वार्थ सूत्र मे कुछ ऐसे सूत्र भी है जो मतभेद जनक नही है, उनसे न किसी का खण्डन होता है ओर न किसी सप्रदाय कौ पुष्टि ही होती है, फिर भी पूर्णतया समन्वय नही हो सका, शेष मभी सूत्रो का समन्वय आगमो से रेख मे मेख ' जेसी उक्ति पूज्य श्री जी ने चरितार्थ कर दौ। उन्होने श्वेताम्बर मान्य तत्वार्थसूत्र का समन्वय नही किया, क्योकि वह तो आगमो से सर्वथा मिलता ही है। किन्तु दिगम्बर मान्य तत्वार्थसूत्र से श्वेताम्बर मान्य आगम अधिक प्राचीन है। उमास्वाति जी कं युग मे दिगम्बर जेन साहित्य स्वल्पमात्रा मे हौ था, जब कि श्वेताम्बर मान्य आगम प्रचुर पात्रा मे थे तथा अन्य साहित्य भी। इससे यह सिद्ध होता है कि शवेताप्बर आगम प्राचीन हे, जबकि दिगम्बर मान्य षट्खण्डागम आदि आगम अर्वाचीन है। उमास्वाति जी का समय वीर निर्वाण स (वी शती का होना विद्वान्‌ मानते है ओर कुछ एक विद्वान्‌ विक्रम स ५वी-छटी शती को स्वीकार करते हे, वास्तव मे वे किस शती मे हुए है यह अभी रिसर्च का विषय हे, ऐसी तरग एक बार सिद्धसेन दिवाकर जी कं मनये भीउटठी थी कि मभी आगमो को तत्वार्थसूत्र कौ तरह सस्कृत भाषा में सूत्र रूप में निर्माण करूं, किन्तु इसके लिए समाज और उनके गुरु सहमत नही हुए, प्रत्युत उन्हे ऐसी भावना लाने का प्रायश्चित्त करना पडा। नन्दीसूत्र कौ हिन्दी व्याख्या का आचार्य प्रवर जी ने उपाध्याय के युग मे ही लेखन कार्य प्रारभ करकं उसकी इति श्री कौ है। आप का श्रीर वार्द्धक्य कं कारण अस्वस्थ एव दुर्बल अवश्य हो गया था, फिर भी धारणा शक्ति ओर स्मृति सदा सरस ही रही है। उनमे वार्द्धश्य का कोई विशेष प्रभाव नही पडा। नेत्रो कौ ज्योति कम होने से आगमो का स्वाध्याय कण्ठस्थ ओर श्रवण से करते रहे है। आपकौ आगमो पर अगाध श्रद्धा एवं रुचि थी। इन दृष्टियो से आचार्य प्रवर जी श्रुतज्ञान के आराधकः ही रहे है। कब ? कहां ? क्‍या लाभ हुआ ? जन्म-पजाब प्रान्त जिला जालधर के अत्तर्गत ''राहों!' नगरी मे क्षत्रिय कुल मुकुट, चोपडा वंशज सेठ मनसाराम जी की धर्मपत्नी परमेश्वरी देवी की कृक्षि से विस १९३५९ भाद्रपद मास कै




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