वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ | Varni- Abhinandan- Granth

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Varni- Abhinandan- Granth by गणेशप्रसाद जी वर्णी - Ganeshprasad Ji Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय इतना ही कह सकता हूँ कि मेने अपनी मर्थादाओ का यथाशक्ति निर्वाह किया है। यही कारण है कि अभिनन्दन में केवल अडसठपृष्ठ देकर शेष ग्रन्थ पूज्य श्री १०५ वर्णीजी के जीवतके ही समान सर्व हितकी सामग्रीके लिए उत्सजित है । तथा उनके ही समान विद्वज्जन-सवेद्व होकर भी सरलूजन मनोहारी भी है। विवगताओ गौर मर्यादाओंके कारण मुझे इस साधनामें कुछ अपनी च्छाके प्रतिकूल भी जाना पडा है। यही कारण है कि वर्णीजी के कितने ही भक्‍्तो तथा अनुरागी विद्वानोकी कृतियों को भ्रन्थमे नहीं दे सका हूँ। इसके लिए में उनसे क्षमा प्रार्थी हू। मे इनका तया उन सब विद्वानों का अत्यन्त आमारी हूँ जिनकी कृतियों से यह ग्रन्थ वना हे । मान्यवर प० वनारसीदास जी चतुर्वेदी की उदारता तो अलौकिक हं । यद्यपि उनका पन्थ के सम्पादनसे कों वंधानिक सम्बन्ध नही रहा हं तथापि उन्होने वुन्देछखण्ड विभागकी पूरी सामग्री तया चित्रावक्ति का सकलन और सम्पादन किया है। इस विभागके ग्रन्यमे आने का पूरा श्रेय इन्ही को है। इतना ही नहीं इसमे दत्त कितने ही व्यक्ति-परक लेसोको देखकर वर्णीजी की महत्ता, उनकी सेवामो की गृरतता तथा अपने प्रम हितरके प्रति अपनी उदासीनता कौ ओर हमारी दृष्टि अनायास ही जा सकैगी। अत मे चतुर्वेदीजीका सविषेश आभारी हु । न्य कौ चित्रा के विषय में हम अपने सकलप को पूर्ण नहीं कर सके। इसके दो कारण रहे प्रथम--आरमाणिक एव स्यातं कलाकार जंन मान्यता तया भावो से अपरिचित हे, दुसरे मेरी उदा- सीनता। तथापि वर्णीजी के जीवन सम्बन्धी चित्रो को लेने मे मुझे श्री डा० ताराचन्द, प्रो० निहाल- चन्द्र नजा, डा शिसरचन्द्र, विद्यार्यी नरेन्द्र धनगुवा, श्री वर्णी ग्रन्थमाला तयां यशपाखनी का पर्याप्त सहयोग मिला हूँ। इसके लिए ये सज्जन धन्यवादाह है। वावू यशपालजीका तो और अनेक प्रकार से भी सहयोग मिला है अत केवछ धन्यवाद देना उसका महत्त्व घटठाना हैँ । वर्णी हीरकं जयन्ति महोत्सव समिति के सयुक्त मत्री प० पन्नालालजी साहित्याचार्यके विषय में क्या कहा जाय। वे इस योजना के सृष्ठा, पोषक एवं परिचालक रहे है। ग्रन्थकी तयारीमें लगे वर्षोके अतीत पर दृष्टि डाछने से जहा मन्दोत्साह एवं शिय्रिक अनेक सायी दृष्टि अति हं वही कर्ततव्यपरायण एवं सतत प्रयत्नशील एकाकी इन्हें देखकर हृदय विकसित हो उठता है। आज तो हम दोनो ही परस्पर सहयोगी तथा इस श्रद्धाज्ञापन यज्ञके लिए दायी हं। अपने घरके छोगो के प्रति सार्वजनिक रुपसे कुछ भी कहना भारतीय शिष्टाचा रके प्रति- कूछ है। अत जिनके उदूबोषन, प्रणा तया सर्वाङ्ग सहयोगके विना मे शायद इस दायित्वको पूर्ण ही न कर सकता, उन पृज्य भाई ( प कैछाशचन्द्र, सिद्धान्तणास्त्री ) के विषय में मौन ही धारण करता हुं। वौद्धिक सहयोग दाता, घीमानो के समान उन श्रीभानो का भी बामारी हूं जिन्होंने मेरे सकेत करने पर ही हमें आथिक सहयोग प्रदान किया है । श्री भार्गव भूषण प्रेस के स्वामी श्री पृथ्वीनाय भागव तथा प्रेस के समस्त कर्मचारियों को हादिक घन्धवाद हं जिनके सहयोग से यह श्रय छमा हं! अन्तम पच्य भी वरभीजी के उत सातिशय पुष्य को प्रणाम करता हैं जिसके पतापसे यह कार्य पूर्ण हुआ और उसकी दीर्घायू की कामना करता ह । श्री कलच विद्यापीठ, बनारस । विनीत, पौष कृष्णा ११-२००६ ] थो० खुशालचन्द्र




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