मदनपराजय | Madanaparajaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अस्तावना १, सम्पादन परिचय प्रतिपरिचय मदन प्रार्जयके सम्भादनमे जिन प्रतियोकां उपयोग किया गया है उनका परिचय इस प्रकार है: १ “कः बह प्रति श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती-मवन झालरापाटनकी है । प्रति कागजपर देवनागरी लिपिमें है। पत्र-सरुपा ४६ है । प्रत्येक पत्रकी रूम्वाई दस इच और चौडाई पाँच इच है। प्रत्येक पत्रमे २६ पक्तियाँ है और प्रत्येक पक्तिमें लगभग २९, ३० अक्षर है। अक्षर वाचे जा सकते है, पर सुन्दर नही है । ग्रन्थ कै तया च' भौर 'उकत च' आदि लाल स्पाहीसे लिखे गये हैं। इस प्रतिका आरम्भ इस प्रकार होता है ॥ स्वरित ॐ नसः सिद्धेभ्य. ॥ यद्मकूपदपं और अन्त निम्न प्रकार होता है इृति भदनपराजयं सम्रापुतमिति॥ मूछसघ भद्दारक श्रीरस्नभूषण जी तदाज्ञावर्ती श्रीरामकीतिं-पडित लछ्टीराम-मज्ञालाल-लक्ष्मी चन्द्र रामचन्द भ्मोलकचन्द्र श्रीपाकपवनाथ्थ भड्ठीकृत क्षे्रोड्यंस्‌ | इस लेखसे प्रतीत होता है कि मूलसघाम्नायी भट्टारक श्री रत्नभूषणके आज्ञापालक श्री रामकीति, पण्डित छट्ठीराम, मन्नाछाल, लक््मीचन्द्र, रामचन्द्र, अमोलकचन्द्र और श्रीपाल़के पढनेके छिए इन सबके कल्याणकी भावनासे यह ग्रन्थ चुना गया 1 यह प्रति कव गौर कहाँ लिखी गयी इसका कोई निर्देश इसमे नही हैं, फिर भी इस प्रतिका उपयोग भट्टारक रत्वभूषणके भाज्ञावर्ती रिष्योने किया ह ¦ इसलिए इस प्रतिका छेखन-काल विक्रमकी १७वीं सदीके लगभग होना चाहिए 1 २ রঃ यह प्रति भी श्री ऐलक प० दि० जैन सरस्वती-भवन झालरापाटनकी है। प्रति कागजपर देवनागरी लिपिमें है । पत्र-सस्पा ५३ है। प्रत्येक पत्रकी लम्बाई १० इंच और चौडाई ४३ इच हैँ। प्रत्येक पत्रमे १८ पत्रितयां है 1 यह प्रति उपलब्ध प्रतियोमे मधिकं शृद्ध ह 1 छिपि सुन्दर भौर भुवाच्य हँ । इस प्रतिका प्रारम्भ इम प्रकार होता ই १ भट्टारक रत्वभूषण काछ्ठासघक्के भट्टारक थे और भट्टारक त्रिभुवनकीतिके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे। वि० स० १६८१ में 'मुनिमुन्नतपुराण' के रचविता ब्रह्मकृष्णदासने, जो हर्पनाम वणिकका पुत्र और मगलका सहोदर था, रत्नभूपणको न्याय, नाटक मौर पुराण-साहित्यमे निपुण एवं 'वादिकुजर'- जैसे विशेषणोसे उल्लेखित किया है। दे० मुनिसुश्रतपुराण । इसके सिवाय 'पोडदकारणदब्रतोद्यापन' और '“कर्णामृतपुराण' के कर्त्ता केशवसेनसूरिने भी अपने इन दोनों प्रन्धोमें भ० रत्नभूषणका उल्छेख किया है। दे० उक्त ग्रन्थ) पोडशकारणब्रतोद्यापनकी रचना स० १६९४ में हुई है और कर्णामृतपुराण' की रचना स० १६८८ में । इन उल्लेखोके आधारपर भ० रत्नभूषणका समय विक्रम स० को १७वी सदीके आगे नही जाता है । भ० रत्नभूषणके समयसे सम्बन्धित सामग्री हमारे मित्र न्यायाचार्य प० दरवारीलालजी कोठियाने प० जुगलूकिणोरजी मुख्तार और १० परमानन्दजो ( सरसावा ) प्ले प्राप्त करके भेजनेकी कृपा की है, इसलिए हम इन सबके अनुगृहीत हैं ।




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