हिंदी काव्य धारा | Hindi Kavyaa Dhara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छः ~ १३ ~ येनये छन्दोंकी सृष्टि करना तो इनका अद्भुत कृतित्व हैं। दोहा, सोरठा, चौपाई, শেন झ्रादि कई सौ ऐसे नये-नये छन्‍्दोंकी उन्होंने सृष्टि की, जिन्हें हिन्दी कृवियोंने बराबर अपनाया हैं, यद्यपि सबको वही । हमारे विद्यापति, कबीर, सूर, जायसी श्रीर्‌ तुतमीके ये ही उज्जीवक और प्रथम प्रेरक रहे है । उन्हें छोड़ देनेसे बीचके कालमें हमारी बहुत हानि हुई और भ्राज भौ उसकी मभा- बना हैं । हमारे मध्यकालीन कवियोने अ्पश्रंशके कवियोंको भुला दिया श्रौर वह प्रेरणा लेने लगे सिफ़ संस्कृतके कवियोंसे | स्वयंभू आदि कवि श्रपती पाँच घताब्दियोंमें सिर्फ़ घास नहीं छीलते रहे, उन्होंने काव्य-मिधिको भौर समृद्ध, भाषाकों और परिपुष्ट करनेका जो महान्‌ काम किया हुँ, हमारे साहित्यको उनकी जो ऐतिहासिक देन हैँ, उसे भुला कर, कड़ीको छोड़कर सीधे संस्कृत- के कवियोंसे सम्बन्ध स्थापित करना हमारे साहित्य भौर हिन्दी-भाषा दोनोंके लिए हानिकर सिद्ध हुआ है । हम संस्कृत कवियोंसे सम्बन्ध जोड़नेके विरोधी नही हैं, लेकिन हमें इस वीचकी कड़ी--जो हमारी श्रपनी ही कड़ी है--को लेते संस्कृतके प्राचीन कवियोंके साथ सम्बन्ध जोड़ना होगा; तभी हम ऐति- हासिक विकाससे पूरा लाभ उठा सकेगे 1 २, आर्थिक ओर सामाजिक अवस्था १--सम्पत्ति और उसके भोक्ता सिद्ध-सामन्त-युगकी कविताओंकी सृप्ठि, श्राकाशमें नहीं हुई। वे हमारे देशकी ठोस घरतीकी उपज है । कवियोंने जो खास-खास शैली-भावकों लेकर कवितायें कीं, वह देशकी तत्कालीन परिस्थितिके कारण ही । “यह्‌ वात तब तक साफ़ नही होगी, जव तक तत्कालीन भारतकी सामाजिकः, श्राथिक, राजनीत्तिक, धामिक, सांस्कृतिक अ्रवस्थाश्रोंकी पृष्ठ-भूमिमें हम उसे नहीं देखते । पहले हम उस काल--अथवा आठवीसे बारहवीं सदीकी पाँच सदियों--की आाथिक अवस्थापर विचार करते हें। उस समय भारत बहुत सम्पन्न था। अकेला रोम अपने यहाँसे हर साल ढाई लाख तोला सोना या साढ़े पाँच लाख सेस्तर्स




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