राधावल्लभ सम्प्रदाय सिद्धान्त और साहित्य | Radhavalbh Sampraday Siddhant Aur Sahitya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
652
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका
डॉ० दीनदयालु गुप्त, एम० ए०, डी०लिद्०
प्रोफेसर तथा अध्यक्ष हिन्दी वथा अन्य आधुनिक भाषा-विभाग
(लखनऊ विश्वविद्यालय)
धर्म के क्षेत्र में भारतीयजन स्देव से स्वतन्त्र रहे हैं। यही कारण है कि जितने दाहों-
निक वाद और घामिक मत-पथ इस देश में प्रचलित हुए उतने अ्रत्य किसी देश में नही हुए ।
वोद्धघमं के वैराग्य श्रौर ज्ञान-प्रघान तथा तात्निक क्रियाग्रो के श्रवदोष प्रभावो को लेकर
यहाँ शव और शाक्त-मतो का श्रनेक शाखा-प्रशाखाओं में प्रचलन हुम्ना जैसे शव, पाशुपत,
कालादमन, कापालिके, कौल श्रादि । इन सम्प्रदायो मे बाहरी ्राचारो तथा बाह्य साधन
क्रियाग्रो पर श्रधिक बल दिया गया था) रौवश्रौर शक्त मतो की प्रभाव-परम्परा में ईसा
की तेरहवी शताब्दी मे नाथ सम्प्रदाय के श्रनेकं पंथ प्रचलित हो गये थे जेसे--सिद्धमार्ग,
योगमार्ग, अवधृतमत आदि । मत्स्येद्धनाथ (मछन्दरनाथ) और गोरखनाथ के द्वारा हठयोग
की साधन क्रियाश्रों को इस युग में श्रधिक प्रचार मिला ।
ईसा की ग्यारहवी शताब्दी मे, जो हिन्दी का शोशव काल था, वौद्धधर्म के निर्वासन
के बाद शंकराचायं के मायावाद, सन्यास, ज्ञान श्रौर योग के मार्गों का देश के घामिक क्षेत्र
भ इतना प्रचार हुआ कि जनता लोक-जीवन से उदासीन होने लगी 1 धमं ने सामूहिक लोक-
घमं का रूप छोडकर व्यक्तिगत साधन का रूप धारण फर लिया 1 संसार के व्यावहारिक
पक्ष को छोडकर लोग परोक्ष के चिन्तन की श्रोर प्रग्रसर हए । श्रधिकारी साघको की देखा-
देखी साघारण पुरुषार्थं श्रौर बुद्धि वाले लोग भी, जो बुद्धि के परिष्कार शरीर ज्ञानयोग के
साधन के लिए बहुत अंश मै श्रयोग्य ये, श्रपने को शर्मः सममभने लगे भौर परमतत्त्व को
पहचानने का ढोग करने लगे । इस प्रवृत्ति ने समाज में एक श्रोर तो दम्भ फो जन्म दिया
श्रोर दूसरी शोर देश में भ्रकमंण्यता फैली । ईसा की ग्यारहवी शताब्दी से देश पर विदेशी
आक़मरण भी प्रारम्भ हो गये थे, जो आगे की कई शताब्दियों तक चलते रहे । उस समय देश
छोटे-छोटे राज्यो में बेटा हुआ था, कोई सगित शक्ति न रह् गई थी। श्रापस की ट श्रौर
व्यक्तिगत मिथ्याभिमान में डूबे हुए भारतीयों को मुट्ठी भर बाहरी लोग रौंदते रहे। ऐसे
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