प्रकाशककी अपोरसे | Prakashakaki Aporse
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
332
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्राकथन १७
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को देव-समान ही मानते हैं। ऐसा व्यक्ति भस्मसे ठके हए किन्तु
न्तस दृहुकते हुए अंगारेकी तरह होता है--
सम्यग्दशंन-सम्पन्नमपि मातंगदेहजम् ।
देवा देवं विदुभेसमगूटांऽगारान्तरौजसम् ॥ श्लो०२८
मसे श्वानके सहश नीचे पडा मनुष्य भी देव हो जाता है
ओर पापसे देव भी श्वान वन जाता ह + (लोक २८)
ये क्तिने उदाच, निभेय ओर आशासय शब्द हैं जो धर्मके
मदान् आन्शेलन ओर परिवर्ततके समय ही विश्व-लोकोपकारी
महात्माओ्ंके कण्ठोंसे निर्गत होते हैं ? 'धर्म ही वह मेरुइण्ड है
जिसके प्रभावते मामूली शरीर रखने वाले आरी्की शक्ति भी
द जाती दै (कापि नाम भवेदन्या सम्पद्
म् 1 श्लोक २६ )। यदि लोकमे आँख खोलकर
देखा जाय तो लोग भिन्न भिन्न तरहके मोहजाल ओर अज्लानकी
वातोंमें फंसे हुए मिलेंगे । कोई नदी ओर समुद्रके स्नानको सव
कुछ माने बैठा द्े,कोई मिट्टी ओर पत्थरके स्तृपाकार ढेर वनवाकर
धर्मकी इतिश्री समझता है, कोई पहाड़से कूदकर प्राणान्त कर
लेने या अग्निमें शरीरको जल्ला देनेसे ही कल्याण मान बैंठे हैं--
ये सब मूखैतासे भरी बातें हैं जिन्हें लोकमूढता कहा जा सकता
है (श्लो० २२ )।| कुछ लोग राग-छेपकी कीचड़्सें लिपटे हुए
हैं पर वरदान पानेकी इच्छासे देवताओंके आगे नाक रगड़ते रहते
ई--वे वेवमूढ ই ( श्तों० २३ ) । कुछ तरद्द तरहके साधु सन््यासी
पाखडियोंके ९ दींमे फेंसे हैं. ( श्लो० २४ बह इनके उद्धारका
एक ही मार्ग ह-सच्ची दृष्टि, सच्चा ज्ञान ओर सच्चा आचार्।
यही पक्का धम है जिसका उपदेश धर्मेश्वर लोग कर गए दह
दुद ्ान चानि धमं धर्मा विदुः । र्ो० ३।
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