अमृत सन्तान | Amrit Santan

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गोपीनाथ महांती - Gopinath Mahanti

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युगजीत नवलपुरी - Yugajeet Navalpuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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৮ अमृत-सन्तानं नानू कोड़े आये पष्पू हिले ( मेंने तो एकदम कूछ भी नहीं किया, मुझे पाप न हो । ) इसी तरह वे अपने-आपको धोखा दिया करते थे । अपने-आपको छल कर दरम के लिए, दरतनी के लिए, कितने ही निर्दोष लोगों को वे बलि चढ़ा डाला करते थे । आज साँवता की आय बीत चली है। सारे बलि शेष हो बले हैं । दरमू अब भी है । दरतनी अब भी हेँ। पर कंच की कोई बड़ंती नहीं हुई । सरब्‌ साँवता सोच रहा था--सब बेकार हूँ । चारों ओर अंधेर-ही- अंधेर हैँ । अपना तो खेर, अगला और पिछला जीवन एक हिसाब से सुख से ही कटा है । कोर चिन्ता नही, कोई अफसोस नीं । शिकार, खेती, दारू ओर मौज-मञ, बस इसी में अस्सी साल कट गये । कभी किसी के मुह से ' रे! नहीं सुनी । कभी किसी को 'हुजूर कह कर नहीं पुकारा । जिससे भी बात की, ओड़े सोइ, ,ओड़े सोइ ` ( हे साथी, है संघाती ) ही कहा । किसी की औरत पर नीयत नहीं बिगाड़ी, किसी और की औरत की चाह तक नहीं की ' न कभी किसी की जगह-जमीन छीनी-झपटी । सीधा-सपाटा रहा जीवन-मर, सखु के पेड की तरह सल्छग । अब तक जिस तरह से दिन कटे हैं, भले कटे हैं; पर अब इस इतने बड़े विशाल-दृषार देह के अन्दर कहीं कोई पुरज्ञा बिगड़ गया ह । किसी भी घड़ी वहु अटक जा सकता हैं । जाने दो !--फिर जन्म तो लेना ही है ! मेंड ए का स्वाद हे, माँस का स्वाद है, दारू का नशा है और सुन्दर-सुहावनी यह वन-घरती है । अड़सी के पीले-पीले फूलों से सजे-सेंवरे ये ढालवान है, ये छोटे-छोटे ढाल पहाड़ हैं । हरे-नीले कमरख की तरह के ऊेयबे-नीचे इन पहाड़ों के ऊपर ये रंग-बिरंगे हलके-फूलके ढीले-डाले मेष हैं। इन्हीं सब में सपने विचरते रहे हैं। ना, इतने सुन्दर मानुस-जयम से बहु अलग नहीं हो सकेगा ! सरबू साँवता उठ कर श्ड़ा हो यया | घर जाकर अपना अलबोजा




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