रवीन्द्र गीतांजलि | Ravindra Geetanjali

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Ravindra Geetanjali by कैलाश कल्पित - Kailash Kalpit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आनन्द न दे पायेगा । काव्य में उपर्युक्त तत्व अपना महत्व रखते हैं | कवि अपनी वाणी से आत्मसात कर, हृदय के स्रोत से काव्य का प्रस्कृटन करता है , किन्तु अनुवाद में हृदय से अधिक मस्तिष्क, बुद्धि और तर्क का प्रयोग होता है फलतः काव्य की मार्मिकता बहुत अंश में लुप्त हो जाती है । अनुवाद इसीलिये असम्भव है फिर भी अनुवादक-कवि जितना ही अधिक भावों को आत्ममात कर अपनी प्रतिभा के बल पर काव्य को प्राज्जलता प्रदान करता है उतना ही सफल होता है | बंगला भाषा का अपना जो माधुर्य्य है, उसके उच्चारण में जो लोच है और जो उसका व्याकरणिक आधार है वह हिन्दी में नहीं | हिन्दी में अपनी सुन्दरता है, अपना व्याकरण है तथा अपना तत्व हैं । इसलिये जब हम बंगला के गीतों को हिन्दी के स्वरों में बाँधने लगते है तो उच्चारण परिवर्तन के साथ ही मात्रिक कठिनाईयाँ उपस्थित होने लगती हैं। ऐसी स्थिति में एक ओर जहाँ काव्य-प्रवाह (रिदिम) में अन्तर आता है वहीं छन्दों का रूप भी परिवर्तित हो जाता है | बंगला भाषा ह्य प्रधान है, उसके काव्य में मात्रा की गिनती मात्रा से नहीं अक्षरों से होती है । रवीन्द्र की ही कविता की इन पंक्तियों का विश्लेषण देखिये 1 # (9) बनेर पाखी गाछे बाहिरे सि बसि = १४ अक्षर ४ ४ ४ ५ २ २ = २१ मात्राएं {२) बनेर गान शिल यत =€ अक्षर ४ ३ २ २ ০৪৭৭ লাসাথ (२) खाँचार पाखी बले शिखानों बुलितार 5 १४ अक्षर ५ ४ ३ ५४ ५ = रेरे मात्राएर # निराला की पुस्तक 'चयन' देखिए । १६




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