भारतीय संस्कृति के स्वर | Bhartiya Sanskriti Ke Swar

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Bhartiya Sanskriti Ke Swar by महादेवी वर्मा - Mahadevi Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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অন জান की क्षमता नही रखता, वज्ञपात का कठोर से তীর হাহ শী स्थायी हो जाने की शक्ति नही रखता । जब मनुष्य का आत्मघाती आवेश शान्त हो जावेगा, तब जीवन के विकास के लिए सृजनशील तत्त्वों की खोज मे, सास्कृतिक चेतना मौर उसकी अभिव्यक्ति के विविध रूप महत्वपूर्णं सिद्ध होगे। सस्कृति की विविध परिभाषाएं सम्भव हौ सकी है, क्योकि वह्‌ विकास काएक रूप नही, विभिन्न रूपों कौ ठेसी समन्वयात्मक समष्टि है, जिसमे एक रूप स्वतः पूर्णं होकर भी अपनी सार्थकता के लिए दूसरे का सापेक्ष है । एक व्यक्ति को पूर्णतया जानने के लिए जैसे उसके रूप, रंग, आकार, आबोलचाल, विचार, आचरण आदि से परिचित हो जाना आवश्यक हो जाता है, वैसे ही किसी जाति की संस्कृति को मूलत' समभने के लिए उसके “विकास की सभी दिज्ञाओ का ज्ञान अनिवार्य है। किसी मनुष्य-समूह के साहित्य, कला, दर्शन आदि के सचित ज्ञान और भाव का ऐश्वर्य ही उसकी सस्कृति का परिचायक नही, उस समूह के प्रत्येक व्यवित का साधारण “शिष्टाचार भी उसका परिचय देने में समर्थ है। यह स्वाभाविक भी है, क्योकि संस्कृति जीवन के बाह्य और आतरिक सस्कार का क्रम ही तो है और इस दृष्टि से उसे जीवन को सब ओर से स्पर्श करना ही होगा 1 इसके अतिरिक्त वह निर्माण ही नहीं, निर्मित तत्त्वों की खोज भी है। भौतिक तत्त्व में मनुष्य प्राणि तत्त्व को खोजता है, प्राणि तत्त्व मे मनस्तत्व को खोजता है ओौर मनस्तत्व मेँ तकं तथा नीति को खोज निकालता है, जो उसके जीवन को समष्टि मे सार्थकता ओर व्यापकता देते है । इस प्रकार विकाष-पय मे मनुष्य का प्रत्येक परम अपन आगे सृजन की निरन्तरता ओौर पीठे अथक अन्वेषण छिपाए हुए है । साधारणतः एक देश की सस्कृति अपनी बाह्य रूप-रेखा मे दूसरे देश की संस्कृति से भिन्‍न जान पड़ती है। यह भिन्नता उनके देश-काल की विशेषता, बाह्य जीवन, उनकी विश्वेष आवश्यकताए तथा उनकी पूर्ति के 'लिए.आप्त विज्लेप साधन आदि पर निर्भर है; आन्तरिक प्रेरणाओं पर नी 4 त्ाहर कौ विभिन्नतामो को पार कर यदि हेम मनुप्य की सस्कार- सस्कृत्ति का प्रशन : 19




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