भारतीय आदिवासी | Bhartiya Aadivasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आरत कौ जवजातीय संस्कृति एवं उसका अध्ययन श्र पलिए भी ये आदिम उपकरणों का ही प्रयोग करते थे । ये लोग या तो वस्त्र सहीं पहनते थे था फिर घास-फूस को कमर के इर्द-गिर्द बाँध लेते थ्रे । इनके पालतू पशुओं में कुत्ता मुख्य था, घोड़े ग्रथवा ढोर को पालतू बनाने की महत्ता इनको विदित न थी । इनकी आोपडियाँ भी बहुत आदिम ढग की होती थी । बॉस और घास-फूस से छोटी सी झोपड़ी ना निर्माण कर लेते थे जिसे छोडकर स्थानान्तरित होने मे इन्हें किपो प्रकार का लोभ अथवा क्षोभ नही होता था । दूसरी श्रेणी मे हम उन जनजातियों को रखते हैं जो पहाड़ो को ढालों ग्रववा पठारों पर रहती है श्रौर 'झूम” खेती श्रथवा जगली वस्तुओं के विनिमय द्वारा जीवन-बापन करती है । मिरजापुर और सरगजा के कोरवा, छोटा नागपुर के झसुर, बंगाल के माल- पहाड़िया, भ्रसम के नागा, लखेड़ गारो, मध्य प्रदेश के बैगा, मुड़िया, दडामी और भड़िया, आन्ध्र प्रदेश और उडीसा के कध व समोरा इस वर्ग की प्रमुख जतजातियां हैं । कुछ समय 'पूवे तक यह एक प्रकार से आदिम ढंग की खेती करते थे। इस प्रकार की खेती में पहाड़ों 'की ढालो पर वनस्पति को जलाकर राख बिखेर दी जाती है। लकडी के एक नुकीले डंडे से, जिसमे कभी-कभी पत्थर या लोहे का छोटा फल लगा होता है, धरती खुरचकर उस 'पर बीज बिखेर दिये जाते हैं। इस डडे को हो' (5००) कहते है और इस प्रकार की खेती को “हो” कृषि । इन जनजातियों को किसी प्रकार की खाद अथवा सिंचाई का ज्ञान नही है और न ही इतकों बीज के उगने की प्रक्रिया की ही जानकारों होती है । प्रत्येक _ वर्ष खेती के लिए नथा वतखड खोजा जाता है भ्रौर उययोग को हुई भूमि को तब तक 'परती छोड़ दिया जाता है जब तक उसपर फिर से वन न उग आये । इस प्रकार की खेती को नागा जातियाँ “झूम” कहती हैं। मध्य प्रदेश के बैगा श्रादिवासियों में इसे “बेवार” कहा जाता है, मिरजापुर जिले, उड़ीसा और मद्रात की जनजातियों में “पोंदू” ॥ इस प्रकार की “हो” कृषि के अतिरिक्त ये लोग जंगल की वस्तुएँ, जैत्े अविला, बेर, खर की छाल, महुआ्ा, तेंद, पलाश के फूल और पत्तियाँ, लाख आदि इकट्ठा कर ठेकेदारों के हाथ बेचने का धधा करते हैं । ये लोग पशु पालते हैं गौर उनके दूध से घी भ्रादि बताना जानते है। इनके शिकार के हरबे और अन्य उपकरण भी काफी सुधरे हुए होते हैं । पहली श्रेणी की जातियो की भाँति ही ये लोग बांस श्रौर पत्तो को अस्थायी शोपड़ियों मे रहते हैं । तीसरी श्रेणी में वे जनजातियाँ झपती है जिनके विषय में कहा जाता है कि वे स्थायी रूप से भूखण्ड पर बस चुकी है और उन्होंने झ्पने भोतिक वातावरण से भरपूर लाभ उठाया है । उत्तर प्रदेश और बिहार की तराई के निवासो थारू और भोक्ता; जौनसार बावर के खस; मिरजापुर के माँस्ी और खरवार; छोट। नायथुर के मुंडा, हो, उराँब;




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